चन्द्रगुप्त मौर्य एक यशस्वी सम्राट

चन्द्रगुप्त मौर्य भारत ही नहीं वरन सम्पूर्ण विश्व के इतिहास के महानतम सम्राटों में से एक था।
सिकंदर के आक्रमण के समय भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था यहां पर अनेक गणतांत्रिक और राजतांत्रिक राज्य थे जिनमें गांधार ,कैकेय, छुद्रक मालव तथा मगध आदि थे ।
मगध का शासन सर्वाधिक शक्तिशाली था तथा उसका राज्य विस्तार उत्तरापथ को छूता था। उस समय मगध का शासक धनानंद था जोकि अत्यंत ही भोग विलासी और विद्वानों का अनादर करने वाला शासक था ।शासन की जिम्मेदारी धनानंद के आमात्य कात्यायन जिसे अपने परिश्रम और मेहनत के कारण राक्षस भी कहा जाता था उसी के ऊपर थी।
कहा जाता है जब सिकंदर भारत में तबाही मचा रहा था उस समय तक्षशिला का एक आचार्य जिसका नाम विष्णुगुप्त था वह धनानंद के पास मगध आया था और उसने धनानंद से सिकंदर के विरुद्ध सहायता मांगी थी पर धनानंद ने उसे अपमानित करके राज सभा से निकाल दिया उसके पश्चात विष्णु गुप्त ने यह सौगंध खाई कि जब तक वह अत्याचारी और अहंकारी नंदो का सर्वनाश नहीं कर देता तब तक अपनी शिखा(चोटी) नहीं बांधेगा।
चन्द्रगुप्त मौर्य के रूप में आचार्य चाणक्य को एक प्रतिभाशाली व्यक्तित्व प्राप्त हुआ चंद्रगुप्त ने चाणक्य को अपना गुरु स्वीकार किया और दोनों ने मिलकर नंद वंश के शासन को भारत से उखाड़ फेंकने की प्रतिज्ञा किया। इसी चन्द्रगुप्त ने आगे चलकर मौर्य वंश की नींव डाली।
इतिहास जानने के स्रोत:-
कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र, विष्णु पुराण, विशाखदत्त कृत मुद्राराक्षस, क्षेमेंद्र कृत वृहत कथा मंजरी, कालिदास कृत मालविकाग्निमित्रम्, कल्हण की राजतरंगिणी आदि, अशोक के स्तंभ, फाह्यान नामक चीनी यात्री के यात्रा विवरण,तिब्बती साहित्य, मौर्य कालीन मुद्राएं,कुल्हाड़ी,मिट्टी के काले पालिशदार बर्तन,मूर्तियां, बौद्ध ग्रंथ दिव्यावदान,मिलिंदपन्हो आदि,जैन ग्रंथ भद्रबाहू चरित आदि मेगस्थनीज, एरियन,स्ट्रेबो, प्लूटार्क के विवरण,प्लिनी की नेचुरल हिस्ट्री।(इसमें कई ग्रंथ आंशिक रूप से प्राप्त हैं जिनमें बहुत सूक्ष्म जानकारी है।)
चन्द्रगुप्त मौर्य का विजय अभियान:-
उस समय उत्तरा पथ में यवन सेना अपना पड़ाव डाले हुए थी ।सिकंदर ने भारत के कई शासकों और उनके राज्यों को अपने अधीन कर लिया था । यवन सेना उनपर अत्याचार करती थी जिससे लोगों में तीव्र असंतोष था इस असंतोष का फायदा चाणक्य और उनके शिष्य चंद्र अथवा चंद्रगुप्त ने उठाया।
यूनानी इतिहासकारों के अनुसार चंद्रगुप्त मगध पर आक्रमण करने के लिए सिकंदर से मिला था परंतु उसकी स्पष्ट और गर्वित वाणी सुनकर सिकंदर अप्रसन्न हो गया उसके वध की आज्ञा दे दी परंतु चंद्रगुप्त भाग निकला बाद में सिकंदर के भारत से चले जाने के बाद उत्तरापथ की स्थिति उनके अनुकूल हो गई।
चाणक्य तक्षशिला का आचार्य था इसलिए उत्तरापथ में उसका बहुत सम्मान था और उत्तरापथ की राजनीति से वह पूरी तरह से परिचित भी था। चाणक्य और चंद्रगुप्त ने मिलकर यवनों के विरुद्ध भारतीयों को भड़काना शुरू किया और भारत को स्वतंत्र कराने के लिए साहस के साथ आगे कदम बढ़ाया। इससे लोगों में उनके प्रति विश्वास जागृत होने लगा।
अपने गुरु विष्णु गुप्त चाणक्य के साथ मिलकर चंद्रगुप्त ने भृत योद्धाओं (भाड़े के सैनिकों) की एक विशाल सेना खड़ी करनी शुरू की और उन्होंने सीमांत प्रदेशों को यवनों की दासता से मुक्त कराना शुरू किया जिससे चंद्रगुप्त लोक नायक के रूप में उभरकर सामने आया।
चन्द्रगुप्त मौर्य का मगध पर अधिकार:-
सीमांत प्रदेशों को स्वतंत्र कराने के पश्चात चंद्रगुप्त ने मगध की ओर प्रस्थान किया उस समय उनके पास पास भृत योद्धाओ और विभिन्न राज्यों के सैनिकों को मिलाकर एक विशाल सेना थी और मगध के विरुद्ध अपने अभियान में सहायता के लिए उन्होंने पर्वतेश्वर से सहायता मांगी। पर्वतेश्वर सहायता देने के लिए तैयार हो गया और वह अपने पुत्र मलय केतु के साथ मगध पर आक्रमण करने के लिए चंद्रगुप्त के साथ मिल गया।
चन्द्रगुप्त मौर्य की मगध विजय के संबंध में विद्वानों में मतभेद है कुछ विद्वान मानते हैं कि मगध विजय सैनिक विजय ना होकर कूटनीतिक विजय थी।
विद्वानों के अनुसार चाणक्य ने दासी के द्वारा नंद और उसके परिवार को विष देकर मरवा दिया था। जबकि कुछ के अनुसार मगध में गृह युद्ध कराकर राज नंद को शासन व्यवस्था चंद्रगुप्त को सौंपने के लिए विवश कर दिया गया था।
मुद्राराक्षस नाटक के अनुसार चंद्रगुप्त की सेना ने मगध को चारों तरफ से घेर लिया था और कई दिनों तक लगातार युद्ध के बाद मगध के सैनिक थक गए फिर राजा ने हार मान ली।
मगध का अमात्य राक्षस नंदों की हत्या होने के बाद काफी समय तक चंद्रगुप्त का विरोधी रहा अंत में चाणक्य ने कूटनीति से उसे चंद्रगुप्त का सहयोगी बना लिया ।
चन्द्रगुप्त मौर्य का वंश परिचय:-
चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म 345 ईसा पूर्व का लगभग हुआ था।
चंद्रगुप्त का मूल वंश क्या था वह कहां उत्पन्न हुआ इसके विषय में अत्यंत विवाद है।
बौद्ध ग्रंथ एक स्वर में चंद्रगुप्त मौर्य को क्षत्रिय कहते हैं। बौद्ध ग्रंथ महावंश और महानिब्बान सुत्त में मौर्यों को क्षत्रिय कहा गया है। अशोकावदन में बिंदुसार और अशोक अपने आप को मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय कहते हैं। विष्णु पुराण में भी मौर्य को क्षत्रिय कहा गया है।
जो विद्वान चंद्रगुप्त मौर्य को शूद्र कहते हैं उन्होंने विशाखदत्त कृत मुद्राराक्षस को आधार माना है जिसमें चंद्रगुप्त मौर्य को वृषल कहा गया है वैसे तो मुद्राराक्षस की अनेक टीकाएं बनी हैं जिनमें कई लुप्त भी हो चुकी हैं इसमें ढुंढिराज नामक टीकाकर ने वृषल का अर्थ बताते हुए बताया है कि चंद्रगुप्त निम्न जाति का था। उसकी माता मुरा नाईन थी और वह धनानंद की दासी थी और उसी से चंद्रगुप्त मौर्य की उत्पत्ति हुई।
परंतु विद्वानों के अनुसार मुरा से उत्पन्न होने के कारण चंद्रगुप्त का उपनाम मोरेय होना चाहिए था मौर्य नहीं क्योंकि संस्कृत व्याकरण में मुरा का उपनाम मोरेय ही होगा मौर्य नहीं।
मुद्राराक्षस में चंद्रगुप्त को वृषल कहा गया है जिसका एक अर्थ श्रेष्ठ भी होता है जबकि दूसरे अर्थ को निकालने पर वह नीच माना जाएगा।
चन्द्रगुप्त मौर्य को मगध तक अभियान करने में दो वर्ष लग गए और 2 वर्ष पश्चात 321 ईसा पूर्व में चंद्रगुप्त मौर्य मगध के सिंहासन पर आसीन हुआ।
चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य विस्तार:-
मगध के सिंहासन पर बैठने के बाद भी वह शांति से नहीं बैठा। आचार्य चाणक्य की सहायता से उसने संपूर्ण उत्तर भारत के बचे प्रांतों को अपने राज्य में सम्मिलित किया। जिन प्रांतों को चंद्रगुप्त मौर्य ने विजित किया वहां के शासक को हटाकर अपना राज्य स्थापित किया इस प्रकार उसका शासन केंद्रित शासन था।
‘रुद्रदामन के गिरनार अभिलेख में चंद्रगुप्त मौर्य के सौराष्ट्र प्रांत की विजय का उल्लेख उसके पश्चिमी सीमा के निर्धारण का संकेत देता है।
ग्रीक भाषा के लेखों में चंद्रगुप्त मौर्य को सेंड्रोकोटस और लैटिन भाषा के लेखो में उसे एंड्रोकोटस नाम से संबोधित किया गया है। यूनानी इतिहासकार जस्टिन और प्लूटार्क के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य ने छः लाख की सेना लेकर संपूर्ण भारत को रौंद दिया।
चन्द्रगुप्त मौर्य और यूनानी सेनापति सेल्यूकस के बीच युद्ध:-
सिकंदर का सेनापति सेल्यूकस था जो सिकंदर की मृत्यु के पश्चात उसके पूर्वी प्रांत का अधिपति हुआ। उसके मन में प्रारंभ से ही पूरब में सिकंदर के द्वारा जीते गए प्रांतों को पाने की तीव्र इच्छा थी इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए 305 ईसा पूर्व में उसने भारत पर आक्रमण किया। सेल्यूकस का अनुमान था कि सिकन्दर की भांति वह भी भारत पर आसानी से विजय प्राप्त कर पाएगा परंतु इस समय भारत चंद्रगुप्त मौर्य जैसे प्रतापी राजा की छाया में सुरक्षित था। चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस की सेना के अभियान की जानकारी होने पर उसका सामना सिंधु नदी के उस पार किया। बिना किसी कठिन युद्ध के सेल्यूकस को हार माननी पड़ी और वह सन्धि करने के लिए विवश हो गया।
संधि की शर्तों के अनुसार:-
1. सेल्यूकस को कंधार, हेरात ,बलूचिस्तान और काबुल घाटी का क्षेत्र चंद्रगुप्त मौर्य को देना पड़ा।
2. चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में सेल्यूकस ने यूनानी राजदूत मेगस्थनीज को भेजा।
3. सेल्यूकस ने अपनी सीरियाई पत्नी से उत्पन्न सुन्दर पुत्री कार्नेलिया हेलेना का विवाह चंद्रगुप्त मौर्य के साथ कर दिया।
हेलेना के साथ चंद्रगुप्त का विवाह हुआ था अथवा नहीं इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद है । यूनानी इतिहासकारों ने इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है हालांकि एपियन ने वैवाहिक संधि की बात की है ।
भविष्य पुराण में वर्णन है कि सेल्यूकस अर्थात सुल्ख ने अपनी कन्या विजेता को दी थी।
4. चन्द्रगुप्त मौर्य ने उपहार स्वरूप 500 हाथी सेल्यूकस को दिए थे।
मेगस्थनीज़ –
वह एक यूनानी राजदूत था जब सेल्यूकस निकेटर की चन्द्रगुप्त के साथ संधि हुई तो सेल्यूकस ने उसे पाटलिपुत्र भेजा वह एक दार्शनिक,इतिहासकार और राजनीतिज्ञ था। चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आने से पहले वह अराकोशिया के छत्रप के यहाँ दूत था।
उसका जन्म 350 ईसा पूर्व में हुआ था। भारत में वह लगभग छः वर्ष तक रहा। यहाँ रहकर जो अनुभव प्राप्त किया उसे अपनी पुस्तक इण्डिका में लिपिबद्ध किया यद्द्यपि यह पुस्तक अब अप्राप्त है परन्तु इसके कुछ अंश एरियन ,स्ट्रेबो और प्लिनी के ग्रंथों में मिलते हैं।
इंडिका के अनुसार भारत एक चतुर्भुज आकार का देश है जो दक्षिण और पूर्वी तरफ महासागर से घिरा है। भारत की लम्बाई 28 हजार स्टेडियम बताया गया है।
चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था:-
आचार्य चाणक्य चंद्रगुप्त मौर्य का गुरु था उनके अनुसार केंद्रीय शासन ही सर्वश्रेष्ठ शासन होता है.चाणक्य गणतांत्रिक शासन के पक्षधर नहीं थे उनके अनुसार केंद्रीकृत शासन में शासन के संपूर्ण विभाग सही प्रकार से गतिमान रहते हैं और निर्णय सरलता से लिया जा सकता है।एकतांत्रिक शासन में राजा राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था राज्य की सारी शक्तियां राजा के अंतर्गत थी।
चाणक्य राजा के देवी अधिकार के सिद्धांत का समर्थन किया है। राजा ही दंड और न्याय का सर्वोच्च अधिकारी था।
परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि राजा निरंकुश था। राजा पर नियंत्रण के लिए मंत्रिपरिषद होती थी राजा उनके परामर्श का सम्मान करता था।
चाणक्य ने अर्थशास्त्र ग्रंथ में लिखा है:-
प्रजासुखे सुखी राज्ञा ,प्रजानाम च हिते हितम।
नात्मप्रिये हितम रज्ञा प्रजानाम तू प्रियम हितम।।
मंत्रिपरिषद:-
राजा की सहायता के लिए एक मंत्रि परिषद होती थी। मंत्री परिषद के सदस्यों की संख्या के विषय में चाणक्य का विचार है कि यह राज्य और राजा की आवश्यकता के अनुसार होना चाहिए। मौर्य शासन में मंत्रिपरिषद के सदस्यों की संख्या 12 ,16 अथवा 20 थी।
मंत्रिपरिषद राजा को विभिन्न विषयों पर सलाह देती थी। यद्यपि मंत्रि परिषद को मंत्रात्मक कहा गया है इसका अर्थ होता है कि वह केवल परामर्शदात्री थी उसकी सलाह मानने के लिए राजा बाध्य नहीं था परन्तु राजा मंत्रिपरिषद की सलाह का सदैव सम्मान करते थे।
मंत्रि परिषद की कार्यवाही अत्यंत ही गुप्त रखी जाती थी। इसके संबंध में आचार्य चाणक्य ने विशेष नियम बनाए थे।
महामंत्री:-
यह मंत्रियों में सबसे प्रमुख मंत्री होता था जिसे प्रधानमंत्री भी कहा जा सकता है। इसका काम राजा को विभिन्न विषयों पर सलाह देना तथा अन्य मंत्रियों के कामकाज की देखभाल भी करना था।
पुरोहित:-
पुरोहित का काम राजा को धार्मिक विषयों पर सलाह देना और महत्वपूर्ण अवसरों पर यज्ञ अनुष्ठान कराना था इसके अतिरिक्त युद्ध के अवसर पर वह राजा की मंगल कामना करता था।
महामात्य:-
यह अमात्यों में प्रमुख था। महामात्य शासन व्यवस्था की देखभाल करता था।
सेनापति:-
सेनापति सेना का प्रमुख होता था। चाणक्य ने सेनापति पद की योग्यता के लिए यह नियम बनाए थे कि उसे युद्ध संबंधी सभी बातों का ज्ञान होना चाहिए।
युवराज:-
राजा की मंत्री परिषद में युवराज का महत्वपूर्ण स्थान था । युवराज राजा के बाद राज्य की बागडोर संभालता था। इसलिए सिंहासनारूढ़ होने के पहले उसे शासन व्यवस्था का अनुभव कराया जाता था और महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया जाता था।
समाहर्ता:-
यह राजस्व मंत्री था इसका मुख्य कार्य राजकीय करो को एकत्रित करना था। इसकी सहायता के लिए उसके नीचे बहुत से अधिकारी कार्य करते थे।
सन्निधाता:-
सन्निधाता का काम राजकीय कोष की देखभाल करना और आय व्यय का लेखा-जोखा रखना था।
नायक:-
युद्ध के समय सेना के संचालन का सारा उत्तरदायित्व नायक पर होता था उसका मुख्य कार्य सेना की छावनियों का निर्माण ,उनके रुकने की व्यवस्था ,सामान लाना ले जाना था।
दुर्गपाल:-
इसका काम राज्य के भीतरी भाग में स्थित दुर्गों की व्यवस्था, मरम्मत और रक्षा संबंधी कार्यों की देखभाल करना था।
अंतपाल:-
इसका काम सीमांत प्रदेशों में स्थित दुर्गों की सुरक्षा और अन्य व्यवस्थाओं की देखभाल करना था।
दंडपाल:-
दंडपाल भी सेना के संबंधित अधिकारी था इसका कार्य सेना से संबंधित सामग्री जुटाना था।
पौर:-
पौर का काम पुर अर्थात नगरों की शासन व्यवस्था की देखभाल करना था। उसे नागरिक भी कहा जाता था।
आंतर्वंशिक:-
यह राजा की अंगरक्षक सेना का प्रधान होता था। अंतः पुर में राजा की सुरक्षा का संपूर्ण उत्तरदायित्व इसी के पास होता था। यह राजा की सुरक्षा के प्रति विशेष सतर्क रहता था।
दौवारिक:-
दौवारिक राज प्रासाद के भीतर से आने वाले व्यक्तियों तथा भीतर से बाहर जाने वाले व्यक्तियों पर पूरी नजर रखता था ।
प्रशास्ता:-
उसका कार्य सभी राजाज्ञाओं को लिपबद्ध करना था , कागजों का रखरखाव करना था । डाक भेजना- मंगाना और कर्मचारियों के वेतन और कारखानों की देखभाल करना था।
आटविक:-
वन विभाग के मंत्री को आटविक कहा जाता था इसका कार्य जंगली भागों में होने वाली गतिविधियों की देखभाल करना तथा अपनी सेना में जंगली लोगों की भर्ती करना था।
न्याय विभाग:-
चंद्रगुप्त के शासनकाल में न्याय पर विशेष बल दिया जाता था। आचार्य चाणक्य के अनुसार राजा पक्षपात रहित होकर न्याय करें।
उद्वेजयति तीक्ष्णेन मृदुना परिभूयते।तस्ताद्धथार्हतो दण्डं नयेत्पक्षमनाश्रित:।।
कठोर दंड से प्रजा विचलित होती है कोमल दंड से तिरस्कार करने लगती है इस कारण बिना पक्षपात के ना तो अधिक कठोर दंड दे ना ही अधिक कोमल बर्ताव करें राजा इसी प्रकार से अपना सम्मान प्राप्त कर सकता है।
साम्राज्य के बड़े से लेकर छोटे भाग में क्रमशः न्यायालय स्थापित थे। राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में मुख्य न्यायालय स्थापित था। नीचे के न्यायालयों से न्याय प्राप्त नहीं हो पाता था तो ऊपर के न्यायालय में जाया जाता था।
मौर्य साम्राज्य में न्यायालय दो प्रकार के थे:-
कंटक शोधन:-
इसमें फौजदारी के मामले सुने जाते थे और अपराध का निर्धारण करके न्याय प्रदान किया जाता था इसके प्रमुख को प्रदेष्टा कहा जाता था।
धर्मस्थीय:-
इस न्यायालय में दीवानी मामले सुने जाते थे जोकि जमीन ,धन आदि से संबंधित मुकदमे होते थे। इस प्रकार के न्यायालय के न्यायाधीशों के प्रमुख को व्यवहारिक कहा जाता था।
यदि कोई अभियोग चलता था तो उस मामले में नियमित रूप से आवेदन देना पड़ता था और दोनों पक्षकारों के विषय में सभी बातें लिखित में होती थी ।
उसके पश्चात विभिन्न प्रमाणों को लेकर और यदि कोई साक्षी है तो उसकी बात सुनकर और सरकार द्वारा जांच करने के पश्चात न्यायाधीश अपना निर्णय सुनाते थे।
मौर्य साम्राज्य में दंड व्यवस्था कठोर थी।
फौजदारी न्यायालय का प्रमुख प्रदेष्टा न्याय विभाग का प्रमुख होता था।
चन्द्रगुप्त मौर्य का सैन्य विभाग:-
सम्राट की सेना अत्यंत विशाल थी। उसने सैन्यबल से ही नंदों की शक्ति का विनाश किया था और यूनानी दासता से उत्तरापथ को मुक्त कराया था इसलिए उसने एक विशाल सेना का संगठन कर लिया था ।
चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना चतुरंगिणी सेना थी। चतुरंगिनी सेना के अंतर्गत पैदल, हाथी, अश्वारोही और रथ आते हैं।
यूनानी इतिहासकार प्लूटार्क के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य ने छः लाख की सेना लेकर संपूर्ण भारत को रौंद दिया था।इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि चंद्रगुप्त मौर्य की सेना में भारी मात्रा में हाथी ,घोड़े ,रथ और पैदल सैनिक थे।
चन्द्रगुप्त मौर्य का गुप्तचर विभाग:-
आचार्य चाणक्य ने अर्थशास्त्र ग्रंथ में गुप्तचर विभाग का विस्तृत उल्लेख किया है।
प्रगल्भ: स्मृतिमान्वागमी शास्त्र चास्य च निष्ठित:। अभ्यस्त कर्मा नृपतेर्दूतो भावितुर्महति।।
दूत बातचीत की कला में निपुण किसी बातों को याद रखने वाला, विशेष वक्ता ,अस्त्र-शस्त्र में पारंगत और अपने कार्य का अभ्यास किया हुआ राजा का सच्चा सहायक होना चाहिए।
दूत दो प्रकार के थे एक प्रगट दूसरा गुप्त।
प्रगट रहने वाले को दूत कहा जाता था और गुप्त रहने वाले को गुप्तचर कहा जाता था।
गुप्त रहने वाले गुप्तचर सन्यासी, विद्यार्थी ,भिक्षुक आदि का वेश बनाकर राज्य में रहते थे राज्य के विरुद्ध होने वाले षडयंत्रों के विषय में सारी जानकारी राजा को देते थे।
अर्थशास्त्र ग्रंथ में दूसरे देश पर भी नजर रखने के लिए गुप्तचरों के महत्व को इंगित किया गया है।
स्वपक्षे परपक्ष च यो न विद चिकर्षितम्। जाग्रन्नापि सुषुप्तोअसौ न भुय: प्रतिबद्धयते।।
जो राजा अपने पक्ष के और विरोधी पक्ष के व्यक्तियों के कार्य करने की इच्छा को नहीं जानता है वह राजा जागता हुआ भी सोता है और फिर जागता ही नहीं है।
संपूर्ण राष्ट्र को प्रांतों में विभाजित करना :-
चन्द्रगुप्त मौर्य ने आचार्य चाणक्य की सहायता से विशाल साम्राज्य को विभिन्न भागों में विभाजित किया था इसका वर्णन सम्राट अशोक के लेखों में मिलता है।
महत्वपूर्ण प्रांतों का अधिकारी राजकुमार अथवा महत्त्व पूर्ण राजकर्मचारियों को नियुक्त किया जाता था जो राजा के अत्यंत विश्वासपात्र होते थे ।उसके समय के प्रांत –
गृह राज्य, उत्तरा पथ, सुराष्ट्र प्रान्त , अवंति और दक्षिणा पथ आदि थे।
शासन की इकाइयों को नीचे से ऊपर तक के क्रम में बहुत व्यवस्थित तरीके से बांटा गया था और उन सब में अधिकारी नियुक्त थे।
शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम था जिसका प्रमुख अधिकारी ग्राम प्रधान होता था इसी प्रकार के 100 गावों को मिलाकर संग्रहण होता था। 200 गांव के समूह को खर्वाटिक कहा जाता था 400 गांव के समूह को द्रोण मुख कहा जाता था और 800 गांव के समूह को स्थानीय कहा जाता था और सभी इकाइयों में अधिकारी नियुक्त थे। नीचे के अधिकारी ऊपर के अधिकारियों के प्रति जवाब देय थे।
राज्य के आय के साधन:-
सरकार को आय विभिन्न साधनों से होती थी उन का विस्तृत वर्णन अर्थशास्त्र में दिया गया है। अर्थशास्त्र में राज्य के आय के साधन, कर व्यवस्था, कर लगाने का तरीका, किन-किन वस्तुओं पर कर लगाया जाए और कितना कर वसूल किया जाए ,सिंचाई की व्यवस्था, फसल बोने का समय ,व्यापार आदि बातों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
कृषि कर उपज का छठा भाग था।
अर्थशास्त्र के अनुसार:-
द्वारादेयम शुल्कपंचभाग: आनुग्रहिकम वा यथदेशोंपकारम स्थापयेत।
द्वारपाल को चाहिए कि वह नगर के प्रधान द्वार से प्रविष्ट होने वाली वस्तुओं पर उनके नियत कर का पांचवा हिस्सा वसूल करें हर प्रकार का कर इस ढंग से नियत करना चाहिए जिससे अपने देश का उपकार हो।
अतो नवपुरानानाम देशजाति चरित्रत:। पन्याना: स्थापयेच्छुल्क मत्स्यम चापकारत:।।
इसलिए राजा को चाहिए कि वह देश काल और आचार के हिसाब से नए एवं पुराने हर पदार्थों पर कर की व्यवस्था करें और उनमें जहां से नुकसान की संभावना हो उनके लिए उचित दंड की व्यवस्था करें।
स्वसेतुभ्यो हस्त प्रावर्तित ममुदक भाग पंचमम दाद्यु:।
अर्थात अपने धन और बाहुबल से बनाए गए तालाबों से यदि सिंचाई की जाए तो उस उपज का पांचवा हिस्सा राजा को देना चाहिए।
सूत का व्यवसाय की देखभाल करने वाले अधिकारी को सूत्राध्यक्ष कहा जाता था।
कृषि की देखभाल करने वाले को सीताध्यक्ष कहा जाता था।
कसाई खाने की देखभाल करने वाले को सूनाध्यक्ष कहा जाता था।
जल मार्ग से व्यापार:-
अर्थशास्त्र ग्रंथ में मिले वर्णन के हिसाब से पता चलता है नदी द्वारा व्यापार काफी उन्नत दशा में था।यह व्यापार नाैकाध्यक्ष की देखरेख में होता था।
नावध्यक्ष: समुद्रसंयाननदमुखतरप्रचारान देशरोविसरोनदी तरांश्च स्थानीय दिष्ववेक्षेत।
नौका परिवहन के अधिकारी को चाहिए कि वह समुद्र तट के समीपवर्ती नदी को, समुद्र के नौका मार्गों को, झीलों , तालाबों और गांव के छोटे-छोटे जल मार्गों को भलीभांति देखता रहे।
मछुओं को चाहिए कि वे अपनी आमदनी का छठा हिस्सा कर के रूप में राजा को दें।
इस प्रकार सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के शासन काल में प्रत्येक बात का विशेष ध्यान रखा जाता था ।व्यापार स्थल और जल दोनों मार्गों से होता था तथा आवागमन के मार्गों का ध्यान रखा जाता था।
चाणक्य ने स्थल मार्ग के व्यापार को जल मार्ग से अधिक उपयुक्त बताया है।
मौर्य शासन में वैश्याओं से भी कर लिया जाता था।वैश्याओ को रूप जीवा कहा जाता था।
रूप जीवा भेगद्वे गुणम मासम दद्यु:।
वेश्या अपनी मासिक आमदनी के हिसाब से दो दिन की कमाई कर रूप में राजा को दे।
चन्द्रगुप्त मौर्य के अंतिम दिन और मृत्यु:-
अपने अंतिम समय में चंद्रगुप्त मौर्य ने जैन भिक्षु भद्रबाहु से जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण की, कुछ समय पश्चात मगध में भीषण अकाल पड़ा। चंद्रगुप्त मौर्य ने इस अकाल से निपटने में जनता की प्रत्येक प्रकार से सहायता की।
जैन अनुश्रुति के अनुसार उसके पश्चात चंद्रगुप्त मौर्य जैन भिक्षु भद्रबाहु के साथ कर्नाटक में स्थित श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर चला गया वहीं उसने अनशन के द्वारा अपने प्राण त्याग दिए। जैन धर्म में उपवास के द्वारा प्राण त्यागने को संलेखना व्रत कहा जाता है।
लगभग 24 वर्ष तक शासन करने के पश्चात 297 ईसा पूर्व में चंद्र गुप्त मौर्य की मृत्यु हुई। इस प्रकार से भारत का यह महान सम्राट इतिहास के पन्नों में अमर हो गया।
जैन धर्म की इस अनुश्रुति कि चंद्रगुप्त मौर्य ने अनशन के द्वारा अपने प्राण त्याग दिए थे कुछ विद्वान स्वीकार नहीं करते परंतु उस काल को देखते हुए यह असंभव भी नहीं जान पड़ता।( देखिए पुस्तक – एनल्स एंड एंटिक्विटीज आफ राजस्थान भाग 1 पृ. 426- लेखक, जे. टाड)
परंतु फ्लीट नामक विद्वान इसे सही नहीं मानते।
कुछ विद्वानों के अनुसार अशोक के पौत्र सम्प्रति(चंद्रगुप्त द्वितीय) ने ऐसा किया था।
ठीक अकाल के समय उपवास के द्वारा प्राण त्यागने के कारण कुछ लोग यह भी अनुमान लगाते हैं कि चंद्रगुप्त अपनी जनता की दुर्दशा से बहुत दुखी था। इसलिए उसने इस व्रत को धारण किया।
चन्द्रगुप्त मौर्य की दो रानियां थी दुर्धारा और कार्नेलिया हेलेना ।
दुर्धरा का पुत्र बिंदुसार हुआ जो चंद्रगुप्त के पश्चात मगध के सिंहासन पर आसीन हुआ।
चंद्रगुप्त मौर्य से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बातें:-
चंद्रगुप्त मौर्य के गुरु का नाम विष्णुगुप्त था जिसे चाणक्य कहा जाता है।
उसकी माता का नाम मुरा था।
बौद्ध ग्रंथ महावंश और महानिब्बान सुत्त में मौर्यों को क्षत्रिय कहा गया है।
अशोकावदन में बिंदुसार और अशोक अपने आप को मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय कहते हैं।
विष्णु पुराण में मौर्य को क्षत्रिय कहा गया है।
विशाखदत्त कृत मुद्राराक्षस में चंद्रगुप्त मौर्य को वृषल कहा गया है।
मुद्राराक्षस के ढुंढिराज नामक टीकाकर ने वृषल का अर्थ बताते हुए बताया है कि चंद्रगुप्त निम्न जाति का था।
रुद्रदामन के गिरनार अभिलेख में चंद्रगुप्त मौर्य के सौराष्ट्र प्रांत की विजय का उल्लेख किया गया है।
चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने अंतिम समय में जैन भिक्षु भद्रबाहु से जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण की थी।
उसने उपवास द्वारा अपने प्राण त्याग दिए थे।जैन धर्म में इसे संलेखना व्रत कहा जाता है।
ग्रीक भाषा के लेखों में चंद्रगुप्त मौर्य को सेंड्रोकोटस कहा गया।
लैटिन भाषा के लेखो में उसे एंड्रोकोटस नाम से संबोधित किया गया है।
यूनानी इतिहासकार जस्टिन और प्लूटार्क के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य ने छः लाख की सेना लेकर संपूर्ण भारत को रौंद दिया।
मौर्य काल में कृषि कर उपज का छठा भाग था।
उस काल में वैश्या को रूप जीव कहा जाता था और उससे भी कर लिया जाता।
इसे भी देखें:-
मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त (विकिपीडिया)