समुद्रगुप्त कौन था

चंद्रगुप्त प्रथम की मृत्यु के पश्चात 335 ईसवी में समुद्रगुप्त सिंहासन पर बैठा वह एक महान विजेता,कुशल शासन प्रबंधक और कला व संस्कृति का पोषक था। उसने पराक्रमांक की उपाधि धारण की थी।
समुद्रगुप्त का प्रारंभिक जीवन:-
प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त अपने आप को लिच्छवी दौहित्र कहता है इससे यह पता लगता है कि समुद्रगुप्त चंद्रगुप्त और लिच्छवी राजकुमारी कुमार देवी का पुत्र था।
प्रयाग प्रशस्ति जो कि संस्कृत भाषा में लिखा गया है उसमें अपने जीवन की घटनाओं के बारे में वर्णन है। प्रयाग प्रशस्ति की रचना हरिषेण ने की थी। यह प्रशस्ति कौशांबी से प्रयाग लाए गए अशोक स्तंभ के ऊपर ही अंकित की गई है।
समुद्रगुप्त बाल्यावस्था से ही अत्यंत होनहार था उसके पिता ने उसकी योग्यता से प्रभावित होकर अपने अन्य पुत्रों की अपेक्षा उसे वरीयता दिया तथा राजा घोषित किया इसका वर्णन प्रयाग प्रशस्ति में है। समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारी बनने से उसके परिवारी जन नाराज हुए और उन्होंने विद्रोह किया परंतु समुद्रगुप्त के द्वारा उन सभी का दमन कर दिया गया। समुद्रगुप्त का आदर्श प्रारंभ से ही दिग्विजय था और वह संपूर्ण भारत को एक सूत्र में बांधना चाहता था।
समुद्रगुप्त की माता कुमार देवी लिच्छवी राजकुमारी थी। लिच्छवियों ने चंद्रगुप्त प्रथम को साम्राज्य विस्तार में सहायता दी। राजा बनने के पश्चात समुद्रगुप्त ने साम्राज्य का विस्तार प्रारंभ किया। उस समय भारत के उत्तरी भाग में नागवंशी राजाओं केेे अनेक राज्य स्थापित हो गए थे नागों के राज्य मथुरा से लेकर बिहार के पश्चिमी भाग तक स्थापित थे। इसकेे अतिरिक्त भार शिवो केे राज्य भी थे जिन्होंने कुषाण साम्राज्य को हटाकर अपने राज्य स्थापित किए थे कुछ विद्वान इन्हें नागों की ही एक शाखाा मानते हैं। इसके अलावा मौखारी, मग और कोटकुल राजवंशों का राज था। अवंती प्रांत में शकों का शासन अवशेष रूप में बचा हुआ था।
दक्षिण की दिशा में भी अनेक राजवंश राज्य कर रहे और जिनमें विंध्याचल के पास विंध्य शक्ति का राज्य, गोदावरी नदी के पास इक्ष्वाकु वंशियों का राज्य और दक्षिण में चोल, पांड्य आदि राज्य थे तथा सुदूर दक्षिण में लंका का राज्य था।
समुद्रगुप्त की दिग्विजय:-
समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त के 9 राजाओं तथा दक्षिणा पथ के 12 राजाओं को परास्त किया था।
उसने पहले पहल पाटलिपुत्र राज्य पर आक्रमण किया और उस पर विजय प्राप्त करने के पश्चात दिग्विजय की योजना प्रारंभ की गई। प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार समुद्रगुप्त ने अच्युत,नागसेन, गणपति और कोटकुल राज्य पर विजय प्राप्त की थी।
काशी प्रसाद जायसवाल के अनुसार कोटकुल पाटलिपुत्र का राजवंश था।
आर्यावर्त के पराजित राजा:-
अच्युत:-
विद्वानों के अनुसार अच्युत शासक उत्तर पांचाल पर शासन करते थे क्योंकि अहिच्छत्र नामक स्थान से उनकी कई ताम्र मुद्राएं मिली हैं।
नागसेन:-
नागसेन की पहचान पद्मावती के नागवंशी राजाओं से की गई है।
गणपति:-
गणपति की पहचान मथुरा के नाग राजवंश से की गई है।
रुद्रदेव:-
रूद्रदेव की पहचान अत्यंत कठिन हो गई है। इनके मूल वंश के विषय में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान इसे कौशांबी का रूद्रदेव कुछ शक छत्रप रूद्र देव और कुछ वाकाटक नरेश रूद्र सेन को ही रूद्र देव मानते हैं। प्रयाग प्रशस्ति में इन्हें आर्यावर्त का राजा कहा गया है इसलिए शक क्षत्रप मानना उचित नहीं है।
मतिल:-
काशी प्रसाद जायसवाल इसे नागवंशी शासक मानते हैं। फ्लीट नामक विद्वान के अनुसार मतिल बुलंदशहर के समीप शासन करता था क्योंकि वहीं से उसकी मिट्टी की बनी हुई मुहर प्राप्त हुई है।
नागदत्त:-
काशी प्रसाद जायसवाल के अनुसार नागदत्त लाहौर के आसपास शासन करता था।
चंद्रवर्म्य:-
कुछ विद्वान इसे बांकुरा (बंगाल) और काशी प्रसाद जायसवाल इसे पूर्वी पंजाब का शासक मानते हैं क्योंकि पंजाब को आर्यावर्त में रखा गया है।
नंदि:-
विद्वानों के अनुमान के अनुसार यह भी नागवंशी राजा था।
बलवर्मन:-
कुछ विद्वान इसे मगध का मौखरी राजा बताते हैं।
रैपसन नामक विद्वान के अनुसार उपरोक्त नौ राजा विष्णु पुराण में वर्णित नौ नागवंशी राजा थे।
कुछ विद्वानों का यह भी अनुमान है कि समुद्रगुप्त के विरुद्ध इन नागवंशी राजाओं ने संघ बनाकर युद्ध किया था और समुद्रगुप्त ने उनको पराजित किया।
दक्षिण के राज्य:-
पिष्टपुर:-
यह राज्य गोदावरी जिले के पीठापुरम नामक स्थान पर था।
कोट्टूर:-
यह राज्य पिष्टपुर से कुछ दूरी पर कोथूर नामक स्थान पर था यहां के शासक स्वामीदत्त को पराजित करके समुद्रगुप्त ने उस पर अपना अधिकार स्थापित किया था।
कौशल के महेंद्र:-
यह मध्य प्रदेश के दक्षिण पूर्वी भाग में स्थित था। यहां का शासक महेंद्र था और उसकी राजधानी श्रीपुर(सिरपुर) थी।
महाकांतर:-
इसका शासक व्याघ्र राज था। जिसके अभिलेख व्याघ्र देव के नाम से बुंदेलखंड के नचना कुठार नामक स्थान से प्राप्त हुए हैं।
कौशल का मंटराज:-
कुछ विद्वान इसे केरल मानते हैं और कुछ दक्षिण का कोराड गांव कहते हैं।
एरंड पल्ल:-
इसका उल्लेख कलिंग नरेश देव बर्मन के सिद्धांतम के ताम्र लेख में हुआ है। इसकी पहचान विशाखापट्टनम के एंडिपल्ली नामक से की गई है।
कांची:-
विद्वानों के अनुसार यह नगर आधुनिक कांचीपुरम था यहां का शासन विष्णु गोप था जो पल्लव वंशीय शासक था।
अवमुक्त:-
यहां का शासक नीलराज था यह क्षेत्र गोदावरी नदी के तट पर स्थित था जो कांचीपुरम के पास था।
देव राष्ट्र:-
देव राष्ट्र का शासक कुबेर था डा राय चौधरी के अनुसार यह स्थान महाराष्ट्र में स्थित है और कुछ विद्वान इसे विशाखापट्टनम के आसपास के भूभाग को कहते हैं।
वेंगी:-
इस राज्य का शासक हस्ति वर्मन था जो शालांकायन वंश से संबंधित था तथा यह गोदावरी जिले के पेडुवेंगी नामक स्थान पर स्थित था।
पालक्क:-
पालक्क राज्य का शासक उग्रसेन था। डॉक्टर एलन और जी. रामदास के अनुसार पालक्क प्रदेश आधुनिक नेल्लोर जिले के पलक्कड नामक स्थान पर स्थित था।
कुशस्थल:-
यहाँ का शासक धनञ्जय था।
सम्राट समुद्रगुप्त ने उत्तर के राज्यों के साथ असुर विजयी नीति का पालन किया जबकि दक्षिण के राज्यों के साथ धर्म विजयी नीति का पालन किया।
असुर विजयी नीति उस नीति को कहते हैं जिसमें किसी राज्य को जीतकर उसे अपने राज्य में मिला लिया जाता था और धर्म विजयी नीति वह नीति होती है जिसके अंतर्गत राज्यों को जीतने के पश्चात अपनी अधीनता स्वीकार करा कर उनके राज्य लौटा दिए जाते थे।
इतिहासकार वी ए स्मिथ के अनुसार समुद्रगुप्त ने संपूर्ण दक्षिणापथ को जीता था इसलिए उन्होंने उसे भारत का नेपोलियन कहा।
इन राज्यों के अलावा समुद्रगुप्त ने विंध्य पर्वत की जंगली जातियों को भी जीता था तथा उससे सीमावर्ती राज्य भयभीत रहते थे और उसे सदैव उपहार,कर,उपस्थिति व पालन के जरिए संतुष्ट रखते थे।
पश्चिमोत्तर भारत के कुषाण शासक और अवंति के शक शासक अत्यंत दुर्बल हो गए थे। सिंहल द्वीप और दक्षिण पयोधि (हिंद महासागर) के अन्य देशों ने समुद्रगुप्त से संधि कर ली थी वे उसे कन्यादान( विवाह), उपहार, समर्पण द्वारा संतुष्ट रखते थे इसके अतिरिक्त अपने राज्यों में गरुड़ के चित्र से अंकित उसकी मुद्रा का प्रयोग करते थे जो गुप्त राज्य की मानक मुद्रा थी।
अपनी विजयों के उपलक्ष में समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया तथा सोने के सिक्के चलाये जो अत्यंत सुंदर दिखाई देते हैं उनकी एक तरफ अश्वमेध यज्ञ के घोड़े की मूर्ति का चित्र अंकित है और दूसरी ओर चंवर लिए राज महिषी का चित्र उत्कीर्ण है व अश्वमेध पराक्रमः लिखा है।
समुद्रगुप्त के सिक्के:-
गुप्त कालीन सिक्के अत्यंत सुन्दर हैं।
समुद्रगुप्त ने कई प्रकार के सिक्के चलाये, इन सिक्कों की धातु सोना और तांबा है।
उसके सिक्के अलंकार पूर्ण हैं इनपर अनेकों प्रकार के चित्र अलंकृत हैं जिनमें-

समुद्रगुप्त के अश्वमेध शैली के सिक्के हैं जिन्हें उसने अश्वमेध यज्ञ के उपलक्ष में जारी किया था सिक्कों के एक तरफ यज्ञ से बंधा हुआ अश्व का चित्र है और उसके चारों ओर गोलाई में राजाधिराज: पृथ्वीम विजित्वा दिवम जयत्याहृतवाजिमेघ: लिखा है तथा दूसरी तरफ चंवर डुलाती हुई राजमहिषी का चित्र है और अश्वमेध पराक्रमः लिखा हुआ है।
अन्य प्रकार के सिक्के में वह वीणा बजा रहा है और चारों ओर गोलाई में महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त लिखा है तथा पिछले भाग पर आसन पर विराजमान एक देवी का चित्र है जिसके पास ही समुद्रगुप्त: अंकित है।

इसके अलावा समुद्रगुप्त के गरुड़ध्वज अंकित सिक्के,परशु लिए समुद्रगुप्त के चित्र से अंकित सिक्के,धनुष बाण लिए सिक्के आदि हैं।
समुद्रगुप्त के प्राप्त सोने के सिक्कों की माप 118 ग्रेन के आसपास है इसके अलावा इसके दो तांबे के सिक्के प्राप्त हुए हैं जिनके ऊपर गरुड़ का चित्र और समुद्र लिखा हुआ है।
समुद्रगुप्त का मूल्यांकन:-
एक महान सैनिक, कुशल राजनीतिज्ञ, विजेता योद्धा था। यह उसकी विजयों से प्रमाणित होता है, कुशल सेनानायक के अतिरिक्त वह संगीत और कला का प्रेमी था। समुद्रगुप्त स्वयं कविता करता था तथा उसने कविराज की उपाधि धारण की थी उसने वीणा बजाते हुए अपने चित्र को अपने सिक्कों पर अंकित कराया है। विद्वानों के प्रति उसकी उदारता का वर्णन करते हुए बताया गया है कि अपने उदार पुरस्कारों द्वारा उसने सरस्वती और लक्ष्मी के विरोध(विद्वानों की दरिद्रता) को समाप्त कर दिया था।
निशित विदग्धमति गांधर्व ललितै व्रीडित त्रिदेशपति गुरु तुम्बरू नारदा देरविद्वज्जनो पजीव्य अनेक काव्यक्रियाभिः प्रतिष्ठित कविराज शब्दस्य (प्रयाग प्रशस्ति )
वह अपने शास्त्र ज्ञान में देवताओं के गुरु वृहस्पति को और अपने संगीत और ललित कलाओं के ज्ञान से नारद और तुम्बरू को भी लज्जित करता है.
उसका काल राजनैतिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से उन्नति का काल था।
समुद्रगुप्त वैदिक धर्मावलंबी था और वह भगवान विष्णु का उपासक था परंतु अन्य धर्मों का समान रूप से आदर करता था।
चीनी ग्रंथ वैंग – ह्वेन – त्सी के एक वर्णन के अनुसार:-
लंका के राजा मेघवर्ण ने दो भिक्षुओं को बोधगया भेजा था जहां उनके रहने की व्यवस्था नहीं हुई जब उसे इसकी सूचना मिली तो उसने बहुत से उपहारों के साथ अपना एक राजदूत राजा के दरबार में विहार निर्माण की आज्ञा लेने के लिए भेजा आज्ञा मिल गई।इसके पश्चात बोधगया में महाबोधि संघाराम नामक बिहार का निर्माण कराया गया।
375 ईसवी में समुद्रगुप्त की मृत्यु हुई। उसके पश्चात उसका पुत्र राम गुप्त कुछ समय के लिए शासक बना और अंत में उसका छोटा पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय जिसे विक्रमादित्य भी कहा जाता है मगध के सिंहासन पर बैठा।
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