राष्ट्रकूट
राष्ट्रकूटों का इतिहास हमारे सामने वातापी के चालुक्य वंश के पश्चात आता है। उनके कई महत्वपूर्ण शासक हुए और उन्होंने अपना साम्राज्य पर्याप्त विस्तृत किया इस वंश का संस्थापक राष्ट्रकूट नामक राजा था।
उत्पत्ति:-
इनकी उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में अलग-अलग मत हैं ।
सी.वी. वैद्य के अनुसार राष्ट्रकूट एक पदवी है।
बर्नेट के अनुसार ये आंध्र प्रदेश के रेड्डी जाति से संबंधित है।
डॉक्टर फ्लीट के अनुसार यह राठौर राजपूतों के वंशज थे।
राष्ट्रकूट शासकों के नवसारी, वर्धा और सांगली के लेखों से पता चलता है यह यदुवंशी क्षत्रिय थे जो कि महाभारत कालीन योद्धा सात्यकी के वंशज थे । उनका पूर्वज रट्ठ नामक व्यक्ति था।
रट्ठ का पुत्र था राष्ट्रकूट। उसी के नाम पर यह वंश राष्ट्रकूट कहलाया।
बाद में ये महाराष्ट्र में बस गए और आंध्र शासकों के समय में उन्हें महारठी पुकारा जाने लगा।
पहले यह चालुक्य शासकों के अधीन थे परंतु बाद में चालुक्य राजा द्वितीय कीर्ति वर्मा के समय में उन्होंने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर दिया। प्रारंभ में उनकी राजधानी नासिक जिले में स्थित मयूर खंड थी और बाद में हैदराबाद में स्थित मालखेड़ हुई।
इनके समनगढ़ लेख तथा एलोरा गुफा के दशावतार के एक मंदिर से प्राप्त लेख के अनुसार इनके प्राचीन शासक दंति वर्मन और प्रथम इंद्रराज थे बाद के समय में गोविंद प्रथम, कर्क प्रथम और इंद्र द्वितीय हुए परंतु इनके प्रारंभिक राजाओं के विषय में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है।
गोविंद प्रथम इनका प्रथम ज्ञात शक्तिशाली शासक था जिसने पुलकेशियन के विरुद्ध शस्त्र उठाया था। उसका पुत्र कर्क प्रथम हुआ।
कर्क प्रथम के पश्चात इंद्र द्वितीय राजा बना जिसने चालुक्य राजकुमारी भवनागा का हरण कर लिया था। इंद्र द्वितीय के पश्चात उसका पुत्र दंतिदुर्ग राजा हुआ।
दंतिदुर्ग:-
दंतिदुर्ग ने आठवीं सदी के मध्य में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना किया। उसने चालुक्य शासक द्वितीय कीर्तिवर्मन से वातापी का राज्य छीन लिया था तथा दक्षिण के राज्यों पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था।
उसका प्रभाव क्षेत्र कलिंग, लाट, कोशल तक था।
वह नर्मदा नदी से लेकर दक्षिण में तुंगभद्रा नदी तक के बीच के भाग का शासक था। उसने राजाधिराज परमेश्वर की उपाधि धारण की थी।
कृष्ण प्रथम:-
दंतिदुर्ग के पश्चात उसका चाचा कृष्ण प्रथम राजा हुआ उसने कोंकण को जीता तथा वेंगीं के चालुक्य राजा कुब्ज़विष्णुवर्धन को भी पराजित किया। उसका एक नाम अकाल वर्ष भी था।
उसने एलोरा के प्रसिद्ध कैलाश मंदिर का निर्माण कराया।
गोविंद द्वितीय:-
कृष्ण प्रथम के पश्चात गोविंद द्वितीय 772 ईसवी में शासक बना। प्रारंभ में वह एक कर्मठ शासक था अपनी गद्दी पर बैठने के समय के बाद पारिजात के विद्रोह को दबाया। परंतु बाद में वह भोग विलास में लिप्त हो गया। उसका भाई ध्रुव धारा वर्ष था वह राज कार्य में उसकी सहायता करता था। गोविंद को भोग विलास में लिप्त देखकर उसने उसे गद्दी से हटा दिया और स्वयं राजा बन गया।
पैथन दान पत्र के अनुसार गोविंद द्वितीय ने आस पड़ोस के सामंतों की सहायता लेकर राज्य प्राप्त करना चाहा परन्तु ध्रुव ने उसे परास्त कर दिया।
ध्रुव धारा वर्ष:-
राष्ट्रकूट शासक ध्रुव धारावर्ष एक विजेता शासक था उसने पल्लवों को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया व मैसूर में स्थित गंग राज्य को अपने में मिला लिया।
इसके पश्चात उत्तर भारत की ओर बढ़ कर उसने उज्जैन के राजा वत्सराज को पराजित किया उसके बाद कन्नौज के राजा इंद्रायुध को फिर बंगाल के शासक धर्मपाल को परास्त करके उसका छत्र छीन लिया। ध्रुव के दो अन्य नाम निरुपम व कलिवल्लभ थे।
गोविंद तृतीय जगत्तुंग:-
ध्रुव धारावर्ष के पश्चात गोविंद तृतीय जगत्तुंग गद्दी पर बैठा।
वह एक महान विजेता था। राष्ट्रकूटों के बड़ोंदा, संजान,राधनपुर आदि लेखों से पता चलता है कि उसका प्रभाव क्षेत्र हिमालय से कन्याकुमारी व गुजरात से भारत के पूर्वी भाग तक था। इससे पता चलता है कि वह चक्रवर्ती सम्राट था।
सिंहासन पर बैठने के पश्चात उसे अपने भाइयों के विद्रोह का सामना करना पड़ा।
उसके बड़े भाई व गंगवाड़ी के प्रांतपति स्तंब ने विद्रोह कर दिया परंतु इस विद्रोह को गोविंद ने अपने भाई इंद्र की सहायता से दबा दिया।
उसने विद्रोहियों को क्षमा कर दिया और स्तंब को पुनः गंगवाड़ी का प्रांतपति नियुक्त कर दिया।
इंद्र को गुजरात का प्रांतपति नियुक्त किया गया।
इसके पश्चात उसने कांची के पल्लव नरेश को पराजित किया। फिर उसने चालुक्य राज्य के साथ युद्ध प्रारंभ किया यह युद्ध 12 वर्ष तक चला अंत में वह चालुक्य शासक विजयादित्य को पराजित करने में सफल हुआ।
दक्षिण की स्थिति सुदृढ़ करने के पश्चात गोविंद ने अपने पिता ध्रुव की भांति उत्तर की ओर विजय अभियान किया। पाल शासक धर्मपाल ने जो उसके पिता ध्रुव से पराजित हुआ था पुनः अपनी सत्ता स्थापित कर ली तथा कान्यकुब्ज के राजा चक्रायुध को गद्दी पर बैठाया। गोविंद ने मध्य भाग पर आक्रमण किया इसके लिए उसने पूरी योजना बनाई अपने भाई इंद्र को मालवा भेजा जिसने गुर्जर प्रतिहार शासक को परास्त कर दिया। गोविंद ने स्वयं एक बड़ी सेना लेकर 808 ईसवी में कन्नौज की ओर बढ़ा रास्ते में चित्रकूट के शासक को परास्त करके अपने अधीन कर लिया।अब उसने दोआब पर आक्रमण किया जहां पर उज्जैनी के नागभट्ट द्वितीय को उसने पराजित किया। उसके आक्रमण से भयभीत होकर कन्नौज के शासक चक्रायुध और पाल सांसद धर्मपाल ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली और उसे प्रभूत धन दिया।
उत्तर के विजय अभियान में उसने केवल मालवा को अपने राज्य में मिला बाकी सभी राज्यों को पराजित करके वापस लौटा दिया।
वापस लौटते समय गोविंद ने भड़ोच के पास श्री भवन के राजा सर्व के यहां विश्राम किया और यहीं पर उसके पुत्र अमोघ वर्ष का जन्म हुआ।
उसकी विजय से भयभीत होकर दक्षिण के राजवंशों चोल, पांड्य, गंगवाड़, केरल और कांची ने मिलकर संघ बनाया गोविंद ने सब को पराजित करके संघ को छिन्न भिन्न कर दिया।
गोविंद तृतीय की मृत्यु 814 ईसवी में हुई।
गोविंद एक महान विजेता होने के साथ एक उदार शासक था।
वह जहां भी गया वहां विजय प्राप्त की पर अधिकतर राज्यों को वापस लौटा दिया।
अमोघवर्ष:-
गोविंदा तृतीय की मृत्यु के साथ पश्चात अमोघवर्ष 814 ईसवी में 6 वर्ष की अल्पायु में गद्दी पर बैठा।
उसकी अल्पायु होने का लाभ उठाकर राज्य के अंदर व बाहर विद्रोह प्रारंभ हो गए। अंतःपुर में उसके खिलाफ षड़यंत्र किया गया। चालुक्य राजा विजयादित्य ने अपने अपमान का बदला लेने के लिए उसपर आक्रमण किया।जब वह बड़ा हुआ तो उसने अपनी स्थिति को सुदृढ़ किया। चालुक्य राजा विजयादित्य तृतीय को पराजित किया। उसने अपनी राजधानी मयूरखंड से बदलकर मान्यखेट कर दिया।
नवसारी दानपात्र के अनुसार उसने राजराज़ ,वल्लभ की उपाधि धारण की थी।
उसने गंगवाडी के शासक भूतग से अपनी पुत्री का विवाह किया।
वह दिगंबर जैन धर्म का अनुयाई था। जैन आचार्य जिनसेन उसके गुरु थे।उसने दक्षिण भारत में जैन धर्म का काफी प्रचार प्रसार किया।
वह एक विद्वान शासक था उसने प्रश्नोत्तर मालिका नामक नीति ग्रंथ व कन्नड़ भाषा में कविराज मार्ग नामक रीतिशास्त्र का ग्रंथ लिखा।
अमोघवर्ष प्रथम के पश्चात उसका पुत्र द्वितीय कृष्णराज अकालवर्ष सिंघासनारूढ़ हुआ उसके समय में प्रतिहार राजा भोज ने उसकी शक्ति को कमजोर किया।
भोज के साथ युद्ध में उसका पुत्र जगत्तुंग मारा गया था। जगत्तुंग की माता कलचुरी शासक कोकल्ल देव की पुत्री थी।
नवसारी दान पत्र के अनुसार उसने अनेक क्षेत्रों को विजित किया। परंतु अन्य लेखों के अनुसार उसके सम्मुख अनेक कठिनाई आई और वह बड़ी मुश्किल से अपने राज्य को बचाने में सफल हो सका। संभवतया चालुक्य शासक विजयादित्य तृतीय ने उसे परास्त किया।
इंद्र तृतीय नित्य वर्ष:-
कृष्ण राज के पश्चात उसका पौत्र इंद्र तृतीय नित्य वर्ष 914 ईसवी में सिंहासन पर बैठा क्योंकि उसके पुत्र जगत्तुंग की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी। इंद्र तृतीय बड़ा ही प्रतापी था। उसने राजा बनने के पहले ही परमार राजा उपेंद्रराज को परास्त किया था। उसने कान्यकुब्ज के प्रतिहार राजा महिपाल पर आक्रमण करके उससे सौराष्ट्र प्रांत छीन लिया। कन्नौज पर आक्रमण के समय महिपाल और भोज द्वितीय में सिंहासन के लिए झगड़ा चल रहा था इस परिस्थिति का लाभ इंद्र तृतीय ने उठाया। खंभात लेख में उसकी कन्नौज विजय का उल्लेख है।
उसने चेदि में एक विजय स्तंभ स्थापित करवाया था।
उसने परममाहेश्वर की उपाधि धारण की थी।
उसने त्रिपुरी के कलचुरी शासक कोकल्ल देव की पुत्री विजम्बा से विवाह किया था।
इंद्र तृतीय की मृत्यु 918 ईसवी में हुई।
इंद्र की मृत्यु बहुत कम समय में हो गई। उसके पश्चात उसका बड़ा पुत्र अमोघ वर्ष द्वितीय गद्दी पर बैठा परंतु उसकी भी शीघ्र मृत्यु हो गई।फिर उसका छोटा बेटा गोविंद चतुर्थ गद्दी पर बैठा परंतु वर्धा दान पत्र के अनुसार उसकी बुद्धि नारियों के नयन पास में बद्ध हो गई और उसने अपना सब कुछ नष्ट कर दिया।
वेंगी के चालुक्य राजा ने उसे पराजित किया।
गोविंद चतुर्थी के पश्चात उसका चाचा अमोघवर्ष तृतीय खोट्टिग गद्दी पर बैठा। उसका विवाह त्रिपुरी के कलचुरी शासक केयूर वर्ष प्रथम की पुत्री से हुआ। उसने अपनी कन्या का विवाह गंगराज द्वितीय भूतग से किया। 940 ईसवी में उसकी मृत्यु हो गई।
कृष्ण तृतीय:-
अमोघ वर्ष के पश्चात उसका पुत्र कृष्ण तृतीय गद्दी पर बैठा। उसने अनेक विजयें की। उसने श्रीवल्लभ और अकालवर्ष की उपाधि धारण की थी।
उसने वेंगी के चालुक्य राजा द्वितीय अम्म को सिंहासन से हटा कर अपने मित्र वाइप को गद्दी पर बैठा दिया।
उसने कांची को जीता तथा अपने बहनोई भूतग की सहायता प्राप्त करके चोल राजा राजादित्य को भी परास्त किया।
उसने दक्षिण के लगभग समस्त राजाओं को परास्त किया जिनमें चोल, चेर,पांड्य,सिंघल आदि प्रमुख हैं।
उसने हिमालय से लेकर दक्षिण तक सभी प्रांत पतियों को परास्त किया।
कृष्ण तृतीय के पश्चात उसका भाई खोटिग गद्दी पर बैठा उसे परमार राजा सीयक हर्ष से परास्त हो गया।
राष्ट्रकूट वंश का अंतिम शासक कक्क द्वितीय था।
972-73 ईसवी में चालुक्य राजा तैलप द्वितीय ने उसपर आक्रमण करके राष्ट्रकूट वंश का अंत कर दिया।
राष्ट्रकूट राज्य में धर्म:-
उस समय बौद्ध धर्म का प्रभाव घट गया था परंतु हिन्दू और जैन धर्मों का पर्याप्त आदर था।
अनेक राजाओं ने पहाड़ों को काटकर शिव व विष्णु के मन्दिर बनवाए।इसमें कृष्ण प्रथम द्वारा एलोरा में बनवाया गया शिव का प्रसिद्ध मंदिर प्रमुख है।इसकी लंबाई 276 फुट और चौड़ाई 154 फुट है।
कला:-
राष्ट्रकूट काल में पहाड़ों को काटकर बनाए गए मंदिर आश्चर्य जनक हैं। इनमें नीलकंठ,दशावतार मंदिर, एलोरा का कैलाश मंदिर प्रमुख हैं। एलोरा की गुफाएं संख्या 29 में अनेक मंदिर हैं
साहित्य:-
इस समय कन्नड़, प्राकृत और संस्कृत साहित्य में अनेक ग्रंथ लिखे गए जिनमें सोमदेव का नीति वाक्यम, यशस्तीलक चम्पू त्रिविक्रम का नल चम्पू, वीराचार्य का गणितसार समुच्चय,शाकटायन का अमोघवृत्ति नामक व्याकरण ग्रंथ, प्रभाव चन्द्र का न्याय कौमुदी चंद्रोदय आदि प्रमुख हैं।
राष्ट्रकूटों की सबसे बड़ी भूल अरबों से मित्रता थी।
उन्होंने गुर्जर प्रतिहारों से अपनी शत्रुता के कारण अरबों से मित्रता की उनकी इस स्थिति का लाभ उठाकर अरबों ने उनसे अनेक छूट प्राप्त की जिनमें व्यापार करना,मस्जिद बनाना और अपने कानून के पालन की भी स्वतंत्रता शामिल थी।
इससे मुसलमानों को यहां पैठ बढ़ाने का अवसर मिला।
इन्हें भी देखें:-
राष्ट्रकूट राजवंश (विकिपीडिया)