मौर्य वंश का महान इतिहास

यूनानी आक्रमणकारी सिकंदर के भारत पर आक्रमण का परिणाम मौर्य वंश का उदय हुआ। जिसने महामनस्वी आचार्य चाणक्य और महान मौर्य सम्राटों के युग का सूत्र पात किया।

 चाणक्य तक्षशिला का आचार्य था इसलिए उत्तरापथ में उसका बहुत सम्मान था और जब यवन आक्रमणकारी सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया और कई प्रदेशों को अपने अधीन कर लिया तब चाणक्य और उनके शिष्य चन्द्रगुप्त ने भारत को यवन दासता से मुक्त करने का बीड़ा उठाया। सिकंदर के वापस चले जाने के पश्चात उन्होंने अपनी शक्ति को इकठ्ठा करना प्रारम्भ किया और यवनों के विरुद्ध भारतीयों को भड़काना शुरू किया।

 अपने गुरु विष्णु गुप्त चाणक्य के साथ मिलकर चंद्रगुप्त ने भृत योद्धाओं (भाड़े के सैनिकों) की एक विशाल सेना तैयार करके सीमांत प्रदेशों  को यवनों की दासता से मुक्त कराना शुरू किया जिससे चंद्रगुप्त लोक नायक के रूप में उभरकर सामने आया।

सीमांत प्रदेशों को स्वतंत्र कराने के पश्चात चंद्रगुप्त ने मगध की ओर प्रस्थान किया उस समय उनके पास भृत योद्धाऔ और विभिन्न राज्यों के सैनिकों को मिलाकर एक विशाल सेना थी मगध के विरुद्ध अपने अभियान में सहायता के लिए उन्होंने पर्वतेश्वर से सहायता मांगी। पर्वतेश्वर  सहायता देने के लिए तैयार हो गया और वह अपने पुत्र मलय केतु के साथ मगध पर आक्रमण करने के लिए चंद्रगुप्त के साथ मिल गया।

मगध विजय के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है कुछ विद्वान् इसे सैनिक विजय मानते है और कुछ कूटनीतिक। मुद्राराक्षस नाटक के अनुसार चन्द्र गुप्त और धनानंद की सेना में भीषण संग्राम हुआ जिसमे चन्द्रगुप्त विजयी हुआ।

चन्द्रगुप्त का वंश परिचय:-

चंद्रगुप्त का मूल वंश क्या था वह कहां उत्पन्न हुआ इसके विषय में अत्यंत विवाद है।

बौद्ध ग्रंथ एक स्वर में चंद्रगुप्त मौर्य को क्षत्रिय कहते हैं। बौद्ध ग्रंथ महावंश और महानिब्बान सुत्त में मोर्यों को क्षत्रिय कहा गया है। अशोकावदन में बिंदुसार और अशोक अपने आप को मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय कहते हैं।

विष्णु पुराण में भी मौर्यों को क्षत्रिय कहा गया है।

जो विद्वान चंद्रगुप्त मौर्य को शूद्र कहते हैं उन्होंने विशाखदत्त कृत मुद्राराक्षस को आधार माना है जिसमें चंद्रगुप्त मौर्य को वृषल कहा गया है। मुद्राराक्षस के एक टीकाकार ढुंढिराज ने  वृषल का अर्थ बताते हुए बताया है कि चंद्रगुप्त निम्न जाति का था। उसकी माता मुरा नाईन थी और वह धनानंद की दासी थी और उसी से चंद्रगुप्त मौर्य की उत्पत्ति हुई।

परंतु विद्वानों के अनुसार मुरा से उत्पन्न होने के कारण चंद्रगुप्त का उपनाम मोरेय होना चाहिए था मौर्य नहीं क्योंकि संस्कृत व्याकरण में मुरा का उपनाम मोरेय ही होगा मौर्य नहीं। 

ग्रीक भाषा के लेखों में चंद्रगुप्त मौर्य को सेंड्रोकोटस  और लैटिन भाषा के लेखो में उसे एंड्रोकोटस नाम से संबोधित किया गया है

साम्राज्य विस्तार:-

मगध के सिंहासन पर बैठने के पश्चात चन्द्रगुप्त आराम से नहीं बैठा बल्कि विभिन्न प्रांतों को अपने अधीन किया इसे चाणक्य ने धरणि बन्ध कहा है।

चंद्रगुप्त मौर्य और यूनानी सेनापति सेल्यूकस के बीच युद्ध:-

सिकंदर का सेनापति सेल्यूकस था जो सिकंदर की मृत्यु के पश्चात उसके पूर्वी प्रांत का अधिपति बना। उसके मन में प्रारंभ से ही पूरब में सिकंदर के द्वारा जीते गए प्रांतों को पाने की तीव्र इच्छा थी इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए 305 ईसा पूर्व में उसने भारत पर आक्रमण किया। सेल्यूकस का अनुमान था कि सिकंदर की भांति वह भी भारत पर आसानी से विजय प्राप्त कर पाएगा परंतु इस समय भारत का सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य था । चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस की सेना का सामना सिंधु नदी के उस पार किया। बिना किसी कठिन युद्ध की सेल्यूकस को हार माननी पड़ी और वह संधि करने के लिए विवश हो गया।

संधि की शर्तों के अनुसार:-

1. सेल्यूकस को कंधार, हेरात ,बलूचिस्तान और काबुल घाटी का क्षेत्र चंद्रगुप्त मौर्य को देना पड़ा।
2. चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में सेल्यूकस ने यूनानी राजदूत मेगस्थनीज को भेजा।
3. सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलेना का विवाह चंद्रगुप्त मौर्य के साथ कर दिया।

हेलेना के साथ चंद्रगुप्त का विवाह हुआ था अथवा नहीं इस संबंध में इतिहासकारों में मतभेद है । यूनानी इतिहासकारों ने इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है हालांकि एपियन ने वैवाहिक संधि की बात की है ।भविष्य पुराण में  वर्णन है कि सेल्यूकस अर्थात सुल्ख ने अपनी कन्या विजेता को दी थी।

4. चंद्रगुप्त मौर्य ने उपहार स्वरूप 500 हाथी सेल्यूकस को दिए थे।

चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य

शासन व्यवस्था:-

चाणक्य ने अर्थशास्त्र में लिखा है:-

 प्रजासुखे सुखी राज्ञा ,प्रजानाम च हिते हितम।

नात्मप्रिये हितम रज्ञा प्रजानाम तू प्रियम हितम।।

मौर्य शासन में मंत्रिपरिषद के सदस्यों की संख्या 12 ,16 अथवा 20 थी।

मंत्रिपरिषद राजा को विभिन्न विषयों पर सलाह देती थी। यद्यपि मंत्री परिषद को मंत्रात्मक कहा गया है इसका अर्थ होता है कि वह केवल परामर्शदात्री थी उसकी सलाह मानने के लिए राजा बाध्य नहीं था परन्तु राजा मंत्रिपरिषद की सलाह का सदैव सम्मान करते थे।
मंत्रि परिषद की कार्यवाही अत्यंत ही गुप्त रखी जाती थी। इसके संबंध में आचार्य चाणक्य ने विशेष नियम बनाए थे।

महामंत्री:-

राजा का सबसे प्रमुख मंत्री जिसे प्रधानमंत्री भी कहा जा सकता है।  इसका काम राजा को विभिन्न विषयों पर सलाह देना था।

पुरोहित:-

 राजा का धार्मिक सलाहकार और राजा के लिए धार्मिक अनुष्ठान करने वाला।

महामात्य:-

यह अमात्यों में प्रमुख था। महामात्य शासन व्यवस्था की देखभाल करता था।

सेनापति:-

सेनापति सैन्य विभाग का प्रमुख होता था।

युवराज:-

राजा की मंत्री परिषद में युवराज का महत्वपूर्ण स्थान था । युवराज राजा के बाद राज्य की बागडोर संभालता था। 

समाहर्ता:-

यह राजस्व मंत्री था यह राजकीय कर एकत्र करता था।

सन्निधाता:-

सन्निधाता का काम राजकीय कोष की देखभाल करना और आय व्यय का लेखा-जोखा रखना था।

नायक:-

युद्ध के समय सेना के संचालन का उत्तरदायी।

दुर्गपाल:-

इसका काम राज्य के भीतरी भाग में स्थित दुर्गों की व्यवस्था, मरम्मत और रक्षा संबंधी कार्यों की देखभाल करना था ।

अंतपाल:-

इसका काम सीमांत प्रदेशों में स्थित दुर्गों की सुरक्षा और अन्य व्यवस्थाओं की देखभाल करना था।

दंडपाल:-

दंडपाल भी सेना के संबंधित अधिकारी था इसका कार्य सेना से संबंधित सामग्री जुटाना था।

पौर:-

पौर का काम पुर अर्थात नगरों की शासन व्यवस्था की देखभाल करना था। उसे नागरिक भी कहा जाता था।

आंतर्वंशिक:-

यह राजा की अंगरक्षक सेना का प्रधान होता था।

दौवारिक:-

 इसका कार्य राज प्रसाद के अंदर- बाहर आने जाने वाले व्यक्तियों की निगरानी करना।

प्रशास्ता:-

उसका कार्य सभी राजाज्ञाओं को लिपबद्ध करना था।

आटविक:-

वन विभाग के मंत्री को आटविक कहा जाता था।

न्याय विभाग:-

मौर्य साम्राज्य में न्यायालय दो प्रकार के थे:-

कंटक शोधन:-

इसमें फौजदारी मामले सुने जाते थे और अपराध का निर्धारण करके न्याय प्रदान किया जाता था इसके प्रमुख को प्रदेष्टा कहा जाता था।

धर्मस्थीय:-

 इस न्यायालय में दीवानी मामले सुने जाते थे जोकि जमीन ,धन आदि से संबंधित मुकदमे होते थे। इस प्रकार के न्यायालय के न्यायाधीशों के प्रमुख को व्यवहारिक कहा जाता था।

मौर्य साम्राज्य में न्यायालय में सभी पक्षकारों के मुकदमें लिखित रूप में रहते थे।

मौर्य साम्राज्य में दंड व्यवस्था कठोर थी।

फौजदारी न्यायालय का प्रमुख प्रदेष्ता न्याय विभाग का प्रमुख होता था।

सैन्य विभाग:-

चंद्रगुप्त की सेना अत्यंत विशाल थी। उसने सैन्यबल से ही नंदों की शक्ति का विनाश किया था और यूनानी दासता से उत्तरापथ को मुक्त कराया था इसलिए उसने एक विशाल सेना का संगठन कर लिया था ।चंद्रगुप्त मौर्य की सेना चतुरंगिणी सेना थी।

चतुरंगिणी सेना के अंतर्गत पैदल, हाथी, अश्वारोही और रथ आते हैं।
यूनानी इतिहासकारों के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य ने छ: लाख की सेना लेकर संपूर्ण भारत को रौंद दिया था।

गुप्तचर विभाग:-

आचार्य चाणक्य ने अपने ग्रंथ अर्थशास्त्र में गुप्तचर विभाग का विस्तृत उल्लेख किया है।

प्रगल्भ: स्मृतिमान्वागमी शास्त्र चास्य च निष्ठित:। अभ्यस्त कर्मा नृपतेर्दूतो भावितुर्महति।।

दूत बातचीत की कला में निपुण किसी बातों को याद रखने वाला, विशेष वक्ता ,अस्त्र-शस्त्र में पारंगत और अपने कार्य का अभ्यास किया हुआ राजा का सच्चा सहायक होना चाहिए।

दूत दो प्रकार के थे एक प्रगट दूसरा गुप्त।

 प्रगट रहने वाले को दूत कहा जाता था और गुप्त रहने वाले को गुप्तचर कहा जाता था।

गुप्त रहने वाले गुप्तचर सन्यासी, विद्यार्थी ,भिक्षुक आदि का वेश बनाकर राज्य में रहते थे राज्य के विरुद्ध होने वाले षडयंत्रों के विषय में सारी जानकारी राजा को देते थे।

अर्थशास्त्र में दूसरे देश पर भी नजर रखने के लिए गुप्तचरों के महत्व को इंगित किया गया है।

स्वपक्षे परपक्ष च यो न विद चिकर्षितम्। जाग्रन्नापि सुषुप्तोअसौ न भुय: प्रतिबद्धयते।।

जो राजा अपने पक्ष के और विरोधी पक्ष के व्यक्तियों के कार्य करने की इच्छा को नहीं जानता है वह राजा जागता हुआ भी सोता है और फिर जागता ही नहीं है।

संपूर्ण राष्ट्र को प्रांतों में विभाजित करना:-

सम्पूर्ण राज्य को कई प्रांतों में विभाजित किया गया था। महत्वपूर्ण प्रांतों के अधिकारी राजकुमार अथवा राजा के अत्यंत विश्वस्त व्यक्ति होते थे।

उसके समय में महत्वपूर्ण प्रांत ,गृह राज्य उत्तरापथ, सुराष्ट्र, अवन्ति और दक्षिणा पथ आदि थे।

शासन की इकाइयों को नीचे से ऊपर तक के क्रम में बहुत व्यवस्थित तरीके से बांटा गया था और उन सब में अधिकारी कार्य करते थे।

शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी जिसका प्रमुख अधिकारी ग्राम प्रधान होता था इसी प्रकार के 100 गांवों को मिलाकर संग्रहण होता था 200 गांव के समूह को खर्वाटिक कहा जाता था 400 गांव के समूह को द्रोण मुख कहा जाता था और 800 गांव के समूह को स्थानीय कहा जाता था।

राज्य के आय के साधन:-

सरकार को आय विभिन्न साधनों से होती थी उन का विस्तृत वर्णन अर्थशास्त्र में दिया गया है अर्थशास्त्र में राज्य के आय के साधन, कर व्यवस्था ,कर लगाने का तरीका, किन-किन वस्तुओं पर कर लगाया जाए और कितना कर वसूल किया जाए ,सिंचाई की व्यवस्था, फसल बोने का समय, व्यापार आदि बातों का विस्तार से वर्णन किया गया है।

अर्थशास्त्र के अनुसार:-

प्रवेश्यानां मूल्य पञ्च भागः।

आयत मूल्य उसकी लागत का पाँचवाँ हिस्सा चुंगी ली जानी चाहिए।

पुष्प फलशकमकंदवॉलिक्यबीजशुष्क मत्स्यमासानां षङ् भागम गृहणियात।

फूल, फल ,साग ,गाजर ,मूल ,शकरकंद ,धान्य ,सूखी मछली और मांस इन वस्तुओं पर उनकी लागत का छठा हिस्सा कर के रूप में लेना चाहिए।

मौर्य शासन में विभिन्न व्यवसायों के अधिकारी नियुक्त थे जिनमें सूत्राध्यक्ष(सूत व्यवसाय का अधिकारी ), सीताध्यक्ष(कृषि विभाग ), सूनाध्यक्ष(कसाई खाना ) आदि थे।

अर्थशास्त्र में मिले वर्णन के हिसाब से पता चलता है नदी द्वारा व्यापार काफी उन्नत दशा में था।

यह व्यापार नाैकाध्यक्ष की देखरेख में होता था।

अर्थशास्त्र के अनुसार –

मछुओं को चाहिए कि वे अपनी आमदनी का छठा हिस्सा कर के रूप में राजा को दें।

व्यापार स्थल  और जल दोनों मार्गों से होता था तथा आवागमन के मार्गों का ध्यान रखा जाता था।

मौर्य शासन में वैश्याओं से भी कर लिया जाता था।

वैश्याओ को रूप जीवा कहा जाता था।

चंद्रगुप्त के अंतिम दिन और मृत्यु:-


अपने अंतिम समय में चंद्रगुप्त मौर्य ने जैन भिक्षु भद्रबाहु से जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण की, कुछ समय पश्चात मगध में भीषण अकाल पड़ा। चंद्रगुप्त मौर्य ने इस अकाल से निपटने में जनता की प्रत्येक प्रकार से सहायता की। 
जैन अनुश्रुति के अनुसार उसके पश्चात चंद्रगुप्त मौर्य कर्नाटक में स्थित श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर चला गया वहीं उसने अनशन के द्वारा अपने प्राण त्याग दिए। इस प्रकार से भारत का यह महान सम्राट इतिहास के पन्नों में अमर हो गया।

चंद्रगुप्त मौर्य की तीन रानियां थी दुर्धारा ,कार्नेलिया हेलेना और चन्द्र नंदिनी।

दुर्धरा का पुत्र बिंदुसार हुआ जो चंद्रगुप्त के पश्चात मगध के सिंहासन पर आसीन हुआ।

बिन्दुसार :-

चन्द्रगुप्त मौर्य की मृत्यु के पश्चात उसका लड़का बिंदुसार 297 ईसा पूर्व में मगध के सिंहासन पर बैठा बिंदुसार की माता का नाम दुर्धारा था।
बिंदुसार का उपनाम अमित्रघात था। अमित्रघात का अर्थ होता है शत्रु का नाश करने वाला इससे पता चलता है कि वह एक विजेता शासक था।

 यूनानी ग्रंथों में बिंदुसार मौर्य को अमित्रोचेटस कहा गया है।

जैन ग्रंथ में बिंदुसार को सिंहसेन कहा गया है।

पुराणों में उसे वारिसार कहा गया है।

जैन और बौद्ध ग्रंथ दोनों से इस बात का पता चलता है चंद्रगुप्त मौर्य की मृत्यु के पश्चात भी आचार्य चाणक्य जीवित थे और उन्होंने बिंदुसार के शासन के आरंभिक वर्षों में उसका मार्गदर्शन किया था।

 बिंदुसार ने पूर्वी समुद्र अर्थात बंगाल की खाड़ी से पश्चिमी समुद्र अरब सागर के बीच के सारे प्रदेश को जीत लिया था उस समय उत्तर में केवल कश्मीर और दक्षिण पूर्व में कलिंग का प्रदेश बिंदुसार के साम्राज्य में नहीं था।उसका साम्राज्य नर्मदा नदी तक था।

बिन्दुसार का साम्राज्य

बिंदुसार के शासन की एक महत्वपूर्ण घटना तक्षशिला का विद्रोह था।उत्तरापथ के शासन का उत्तरदायित्व बिन्दुसार के बड़े लड़के सुसीम पर था किन्तु वह इसे दबाने में असमर्थ हो गया जब इसकी सूचना सम्राट बिंदुसार तक पहुंची तो उसने अपने लड़के अशोक को भेजा। अशोक के तक्षशिला पहुंचने के पहले ही वहां की जनता ने अपने प्रतिनिधियों के साथ मार्ग में मिलकर अशोक का स्वागत किया और उसे बताया कि तक्षशिला की  जनता ना तो राजा के विरुद्ध है ना ही राजकुमार के वह तो केवल प्रांतपतियों के शासन से तंग आकर विद्रोह करने पर मजबूर हुई है । अशोक ने शासन को ठीक कर दिया और विद्रोह समाप्त हो गया।

बिंदुसार की मृत्यु 272 ईसा पूर्व में हुई।

बिंदुसार की कई रानियां और उनसे कई पुत्र थे।

पाली साहित्य के अनुसार बिंदुसार की 16 रानियां थी और 100 पुत्र हुए। जिनमें से सबसे बड़ा लड़का सुसीम था तथा शुभद्रांगी से अशोक नामक पुत्र हुआ। यही अशोक बिंदुसार के पश्चात मगध का शासक बना और  प्रियदर्शी सम्राट अशोक के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुआ।

सम्राट अशोक:-

भारत के इतिहास में सम्राट अशोक का स्थान बहुत ही ऊंचा है। अशोक मौर्य वंश का तीसरा शासक था उसका पिता बिंदुसार और पितामह महान चंद्रगुप्त मौर्य था। 

अशोक की माता का नाम शुभद्रांगी था तथा शुभद्रांगी से अशोक का एक अन्य भाई तिष्य हुआ।

अशोक बचपन से ही होनहार और योग्य था। बिंदुसार ने अशोक की योग्यता से प्रभावित होकर उसे अवंति का राज्यपाल नियुक्ति किया।
तक्षशिला में विद्रोह होने की स्थिति में विद्रोह को दबाने में जब सुसीम असमर्थ हो गया तो बिंदुसार ने अशोक को विद्रोह को दबाने के लिए भेजा और अशोक ने कुशलता पूर्वक बिना रक्तपात के इस विद्रोह को दबा दिया। 

अशोक का भाइयों से संघर्ष:-

272 ईसा पूर्व में बिंदुसार बीमार पड़ा तो उस समय उसके पुत्रों में संघर्ष का सूत्रपात हुआ। बिंदुसार अपने बड़े लड़के सुसीम को राजा बनाना चाहता था परंतु उसके दोनों पुत्र सुसीम और अशोक के सहयोगी दो दलों में बंट गए। एक पक्ष सुसीम को राजा बनना चाहता था और दूसरा पक्ष अशोक को।
सुसीम का साथ उसके अधिकांश भाइयों ने दिया जबकि अशोक के साथ उसका सहोदर भाई तिष्य था दोनों दलों में भीषण युद्ध आरंभ हुआ जिसमें सुसीम अपने कई भाइयों सहित मारा गया और अशोक विजयी हुआ।

बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अशोक अपने 99 भाइयों को मार कर सम्राट बना था पहले उसे चंडाशोक कहा जाता था परंतु अशोक के अभिलेखों से इसका विरोधाभास मिलता है क्योंकि उसने अपने अभिलेखों में अपने भाइयों के जीवित होने की बात कही है।अशोक का राज्याभिषेक 269 ईसापूर्व में हुआ इस प्रकार 272 से 269 ईसा पूर्व के बीच का अंतर यह प्रदर्शित करता है कि इस समय के बीच राज्य में उथल पुथल थी।

विवाह और संताने:-


पाली ग्रंथ दीप वंश और महा वंश से यह पता चलता है कि अशोक  ने  कई विवाह किए:-देवी,कारूकावी, तिष्यरक्षिता,असंघमित्रा,पद्मावती।

देवी – पुत्र महेंद्र, पुत्री संघमित्रा।

कारुकावी:- पुत्र तीवर

पद्मावती:- कुणाल (पुत्र)

अशोक का विजय अभियान:-

अशोक ने सिंहासन पर बैठने के पश्चात  कश्मीर राज्य पर आक्रमण करके उसे अपने अधिकार में ले लिया कहा जाता है कश्मीर की राजधानी श्रीनगर का निर्माण सम्राट अशोक ने ही कराया था।

अपने राज्याभिषेक के आठवें वर्ष में अशोक ने कलिंग राज्य पर आक्रमण किया कलिंग राज्य जो आधुनिक उड़ीसा राज्य में स्थित था  भीषण संग्राम हुआ जिसमें अशोक विजयी हुआ इस युद्ध में जनधन की भारी क्षति हुई थी । इस युद्ध के परिणाम स्वरूप डेढ़ लाख व्यक्ति निर्वासित हुए और एक लाख व्यक्ति मारे गए अशोक के 13 वें शिलालेख में इसका उल्लेख किया गया है।

जब अशोक  घोड़े पर बैठकर युद्ध भूमि का निरीक्षण करने गया तब उसे चारों तरफ लाशों के ढेर दिखाई दिए जिससे अशोक का मन विचलित हो गया और उसने यह प्रतिज्ञा की कि अब वह शस्त्र नहीं उठाएगा।

 उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षु से अशोक ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली।

इस प्रकार अशोक ने भेरीघोष (युद्ध के नगाड़ों की ध्वनि) को छोड़कर धम्मघोष (धर्म प्रचार) अपना लिया।

अशोक का साम्राज्य

अशोक का धम्म घोष:-

कलिंग युद्ध के पश्चात मृतकों के समूह को देखकर अशोक को युद्ध की अनावश्यकता समझ में आ गयी और उसने निश्चय किया है कि अब वह मानवता की सेवा करेगा । दीनों की सेवा करके उनके हृदय को जीतना युद्ध की विजय से कहीं अधिक स्थायी और आनंददायक है। इसलिए अशोक ने दीन दुखियों ,रोगियों यहां तक कि जानवरों की भी देखभाल के लिए अस्पताल बनवाए। 

अशोक ने एक नवीन विभाग की स्थापना किया जिसके प्रमुख को धर्म महामात्र कहा जाता था वह जनता की नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति की देखभाल करता था।

अशोक ने अपने राज्य में धर्म गोष्ठियों का आयोजन किया इसमें धार्मिक विषयों पर भाषण, कथा और वाद विवाद होते थे।


धार्मिक यात्राएं:-

अशोक ने विभिन्न देशों में विद्वान भिक्षुओं को धर्म प्रचार के लिए भेजा। जिनमें म्यांमार ,जावा ,सुमात्रा ,लंका ,यूनान आदि हैं।

धार्मिक लेख:-

अशोक ने अपने धार्मिक लेखों को पत्थरों, स्तंभों और गुफाओं में उत्कीर्ण कराया जिससे ये लम्बे समय तक रहें और लोग इनका अनुसरण कर सकें।

अशोक के अभिलेखों को 6 भागों में विभाजित किया जा सकता है-

शिलालेख , लघुशिलालेख , स्तंभलेख , लघुस्तंभलेख गुहा लेख , अन्य लेख।

शिलालेख:-

इनकी संख्या 14 है। अशोक के सभी 14 शिलालेख गिरनार (गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र), कालसी (उत्तर प्रदेश में देहरादून के निकट), मानसेहरा,शाहबाजगढ़ी(पाकिस्तान) और एरागुड़ी (आंध्र प्रदेश में कुरनूल के निकट), सन्नथी (कर्नाटक) इसके अलावा महाराष्ट्र के सोपारा में तथा उड़ीसा में धौली और जौगढ़ में स्थित हैं।


स्तंभ लेख:-

दिल्ली टोपरा, दिल्ली मेरठ ,लौरिया नंदनगढ़, लोरिया अरेराज ,रामपुरवा जो कि बिहार में है। उदाहरण स्वरूप द्वितीय स्तंभ लेख

देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा का कहना है कि- धर्म करना अच्छा है । पर धर्म क्या है?  धर्म यही है कि पाप से दूर रहें बहुत से अच्छे काम करें दान, दया ,सत्य और सौच(पवित्रता) का पालन करें मैंने कई प्रकार से चक्षु का दान (आध्यात्मिक दृष्ट का दान) भी लोगों को दिया है दोपायो, चौपायों ,पक्षियों और जलचर जीवों पर भी मैंने अनेक कृपा की है मैंने उन्हें प्राण दान भी दिया है और भी बहुत से कल्याण के काम मैंने किये । यह लेख मैंने इसलिए लिखवाया है कि लोग इसके अनुसार आचरण करें और यह चिरस्थाई रहे ।जो इसके अनुसार कार्य करेगा वह पुण्य का काम करेगा।

लघुशिलालेख:-

सासाराम (बिहार ) रूपनाथ , गुर्जरा(मध्य प्रदेश), भाब्रू (राजस्थान ), ब्रम्हगिरी ,सिद्धपुर , जटिंग रामेश्वर गोवि मठ ,पालकी मुंडू (कर्नाटक )राजुल मंडगिरी , मास्की, एर्रा गुड्डी (आंध्र प्रदेश ),अहरौरा (उत्तर प्रदेश )   अमर पुरी (नई दिल्ली)आदि हैं।

लघु स्तंभ लेख:-

रुक्मिनदेयी, निग्लिहवा( नेपाल) सारनाथ, कौशांबी (उत्तर प्रदेश), सांची (मध्य प्रदेश) और इलाहाबाद से प्राप्त रानी का स्तंभलेख।

रुक्मिन देयी का लघु स्तंभ लेख:-

देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने राज्याभिषेक के 20 वर्ष बाद स्वयं आकर इस स्थान की पूजा की क्योंकि यहां शाक्य मुनि का जन्म हुआ था। यहां पत्थर की एक प्राचीर बनवाई गई और पत्थर का एक स्तम्भ खड़ा किया गया। बुद्ध भगवान यहां जन्मे थे इसलिए लुंबिनी ग्राम को कर से मुक्त कर दिया गया और पैदावार का आठवां भाग जो राजा का हक था उसी ग्राम को दे दिया गया।

गुहा लेख :-

अशोक ने कई गुफाओं का भी निर्माण कराया और उनके अंदर लेख लिखवाये।

द्वितीय गुहा लेख :-

स्खलतित पर्वत पर यह गुहा शासन के बारहवें  वर्ष में आजीवकों को दी गई।

तृतीय गुहा लेख:-

यह  गुफा बाढ़ के पानी से बचने के लिए राजा के अभिषेक के १९ वें वर्ष में आजीवकों को दी गई थी।

अशोक का एक अन्य महत्वपूर्ण शिलालेख कंधार से अप्रैल १९५८(1958)में प्राप्त हुआ है। यहशिलालेख एक विशाल शिला पर शरिकुन नामक स्थान पर प्राप्त हुआ है ।यह द्विभाषी शिलालेख है जिसे ग्रीक और अरामाइक दोनों भाषाओं में लिखा गया है वास्तव में यह शिलालेख ग्रीक भाषा में है परंतु इसका अनुवाद ईरानी भाषा में किया गया है । इस शिलालेख में अशोक ने पशुओं और मनुष्यों के प्रति प्रेम का संदेश दिया है । इस लेख में ग्रीक भाषा की 14 पंक्तियां हैं तथा अरामाईक भाषा की 8 पंक्तियां हैं।

तीसरी बौद्ध संगति:-

अशोक के शासनकाल में 251 ईसा पूर्व में तीसरी बौद्ध संगति का आयोजन पाटलिपुत्र में किया गया इसकी अध्यक्षता मोगलीपुत्त्त तिस्स ने की थी। 
तृतीय बौद्ध संगति के आयोजन का मुख्य कारण बौद्ध भिक्षुओं में व्याप्त आपसी मतभेदों को दूर करना था।
 इस संगति में विनय पिटक एवं सुत्त पिटक की पृष्ठभूमि में एक अन्य ग्रंथ कथा वत्थु को जोड़ा गया जिसका विस्तृत रूप अभिधम्म पिटक हुआ ।
 इसी बौद्ध संगति में यह निश्चित हुआ था कि धर्म प्रचारकों को पाटलिपुत्र के बाहर साम्राज्य की सीमा में और भारतवर्ष के बाहर अन्य देशों में भी भेजा जाएगा।

सम्राट अशोक के लोक कल्याणकारी कार्य:-

अशोक ने अपनी प्रजा को अपना पुत्र कहा और प्रजा के हित के लिए उसने अथक परिश्रम किया और प्रजा को अधिक से अधिक सुख देने के लिए जीवन भर प्रयत्नशील रहा ।

सम्राट अशोक ने मनुष्य के साथ साथ पशुओं के लिए भी हितकारी कार्य किए पशुओं की देखभाल के लिए चिकित्सालय की व्यवस्था की गई थी यह अपने आप में विश्व इतिहास में एक अनूठी पहल है। उसने सड़के बनवाई सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाये ,स्थान स्थान पर कुएं खुदवाए। लोगों के रहने के लिए धर्मशाला का निर्माण कराया ,औषधालय बनवाए पशुवध निषिद्ध कराया।

अशोक के बौद्ध धर्म के प्रचार का भारतीय राजनीति पर प्रभाव:-

विद्वानों ने एक स्वर में सम्राट अशोक को महान शासक स्वीकार किया है उसने  राजा और जनता के सामने मानवता का एक आदर्श प्रस्तुत किया परन्तु उसकी इस अहिंसक प्रकृति का दुष्परिणाम भी सामने आया । जब तक वह जीवित था तब तक उसका राज्य पूरी तरह से सुरक्षित था परंतु उसके पश्चात उसके दुर्बल उत्तराधिकारियों के समय वह खंड-खंड होकर बिखरने लगा सम्राट अशोक की अहिंसक नीति और उसके अधिकारियों का उसकी अहिंसक नीति के प्रचार में लगना उसकी सेना को धीरे-धीरे करके कमजोर करता गया । सेना युद्ध के प्रति अभ्यास हीन हो गई जिससे विदेशी बर्बर आक्रमणकारियों के लिए भारत पर आक्रमण का प्रयास प्रारंभ हुआ।

सम्राट अशोक सम्पूर्ण विश्व के इतिहास का महानतम शासक था। उसकी महानता इसी बात से प्रकट होती है कि जब वह अपनी शक्ति की पराकाष्ठा पर था उसी समय मानवीय कष्टों से द्रवित होकर युद्ध का रास्ता छोड़ कर मानवता की सेवा का बीड़ा उठाया और धम्म घोष में भी उतना ही सफल हुआ।

उत्तर मौर्य शासक (अशोक के पश्चात):-

कुणाल:-

अशोक की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र कुणाल राज सिंहासन पर बैठा कुणाल की माता का नाम पद्मावती था कुणाल की आंखें बहुत सुंदर थी और उसकी आंखें पहाड़ी प्रदेश पर मिलने वाले पक्षी कुणाल से मिलती थी जिसके कारण मंत्रियों ने और सम्राट अशोक में उसे कुणाल कहना प्रारंभ कर दिया।
बौद्ध और जैन ग्रंथों के अनुसार अशोक की एक पत्नी तिष्यरक्षिता ने षड्यंत्र करके कुणाल को अंधा बना दिया बाद में एक ऋषि के आशीर्वाद से उसकी आंखें वापस लौट आई। कुणाल की मृत्यु 224 ईसा पूर्व में हुई।

दशरथ:-

कुणाल के पश्चात दशरथ गद्दी पर बैठा।वह धार्मिक प्रवृति का था । दशरथ ने आजीवकों के लिए नागार्जुन की पहाड़ियों पर गुफा विहार बनवाया था।  216 ईसा पूर्व में उसकी मृत्यु हुई।

सम्प्रति:-

दशरथ के पश्चात उसका भाई सम्प्रति राज सिंहासन पर बैठा।
 उसी समय में मगध साम्राज्य की दो राजधानियां पाटिलपुत्र और उज्जैनी थी। 
वह जैन धर्म का अनुयाई था जैन धर्म के इतिहास में उसका महत्वपूर्ण स्थान है ।
सम्प्रति की मृत्यु 207 ईसा पूर्व में हुई।वह उत्तरवर्ती मौर्य शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली था।

शालिशूक:-

अपने भाई की हत्या करके शालिशूक सिंहासन पर बैठा।उसी के समय में यूनानी शासक एंटीयोकस तृतीय ने भारत पर आक्रमण किया परंतु वापस लौट गया। 

देव वर्मा:-

शालिशूक के पश्चात देव वर्मा मगध के सिंहासन पर बैठा परंतु उसका शासन अधिक समय तक नहीं था।

शतधन्वा:-

शालिशूक के पश्चात शतधनवा  मगध के सिंहासन पर बैठा ।

बृहद्रथ:-

मौर्य वंश का अंतिम शासक बृहद्रथ भोग विलास में लिप्त रहता था। पुराणों के अनुसार राज्य शासन से पूरी तरह विमुख हो गया था जिसके कारण उसके मंत्रियों में काफी असंतोष था और अंत में उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने सेना का निरीक्षण कराने के बहाने उसका वध कर दिया और शुंग वंश की नींव डाली।

मात्र 137 वर्ष के शासन के पश्चात मौर्य वंश का अंत हुआ और मौर्य वंश इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया। 

मौर्य वंश के पतन के कारण:-

सम्राट अशोक के बाद मौर्य वंश का पतन धीरे-धीरे होने लगा । मौर्य वंश के पतन के निम्नलिखित कारण थे:-

योग्य उत्तराधिकारियों का अभाव:-

अशोक के पश्चात उसके उत्तराधिकारियों में कोई भी इतना योग्य और शक्तिशाली नहीं हुआ कि वह विशाल मौर्य साम्राज्य को एक सूत्र में बांध सकता था।

साम्राज्य का अत्यंत विस्तृत होना:-

 मौर्य साम्राज्य हिंदूकुश से लेकर बंगाल की खाड़ी तक तथा दक्षिण में नर्मदा से कश्मीर तक अत्यंत विस्तृत था। अशोक के उत्तराधिकारी शासक अपने प्रांतीय अधिकारियों पर अंकुश लगाये रखने में असमर्थ हुए जिससे कि राज्य बिखरने लगा।

सैन्य दुर्बलता:-

चंद्रगुप्त मौर्य के समय में एक विशाल सेना स्थापित की गई थी। वह दिग्विजय सेना थी और उसने सदैव विजय प्राप्त किया था । बिंदुसार ने इसी सेना के बल पर साम्राज्य का विस्तार समुद्र तक किया था । सेना ने अशोक के समय में भी अपनी कुशलता का परिचय दिया और कश्मीर तथा कलिंग जैसे राज्यों को बड़ी आसानी से जिता दिया । उस समय तक सेना विभिन्न युद्ध में अनुभव प्राप्त करने वाली तथा नियमित अभ्यास करने वाली थी ,परंतु जब से अशोक ने भेरी घोष के स्थान पर धम्म घोष का अनुसरण करना शुरू कर दिया उसके पश्चात सेना में अधिकारियों का कार्य धर्म का प्रचार करना रह गया । जब तक सम्राट अशोक जीवित था तब तक किसी भी बाहरी सत्ता में भारत की तरफ आंख उठाने की हिम्मत नहीं किया। परंतु उसके दुर्बल उत्तराधिकारियों के समय में उन्होंने भारत के द्वार खटखटाने शुरू।

ब्राह्मणों में असंतोष:-

यद्यपि यह कारण अप्रकट था परंतु फिर भी इससे इनकार नहीं किया जा सकता ।
मौर्य शासक प्रगतिवादी विचारधारा के थे । अशोक प्रारंभ में शिव का उपासक था परंतु कलिंग युद्ध के बाद उसने बौद्ध धर्म अपना लिया। बौद्धों के लिए अनेक विहार, स्तूप ,गुफाएं बनवाई, इस कारण से वैदिक धर्मावलंबियों में असंतोष व्याप्त हुआ।यद्यपि सम्राट अशोक श्रमण भिक्छुओं से पहले ब्राह्मणों का आदर करता था और उन्हें दान भी देता था ।
बौद्ध धर्म के प्रचार से राष्ट्रीयता के स्थान पर अंतर्राष्ट्रीयता का विकास हुआ। राष्ट्र की सुरक्षा के लिए शत्रुओं से घृणा और राष्ट्रीयता का भाव आवश्यक होते हैं जबकि अंतरराष्ट्रीयता राज्य की सुरक्षा के लिए घातक होती है।

सभ्यता और संस्कृति:-

मौर्य कालीन समाज संस्कृति अत्यंत उन्नत अवस्था में थी।

राजा जनता को पुत्र के समान समझता था और पुत्र की तरह ही उनका पालन पोषण करता था।
मौर्य काल में भारतीय समाज विभिन्न वर्गों में बंटा हुआ था।
 जिनमें ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र सम्मिलित थे इन जातियों के अनेक उपजातियां भी बनने लगी थी तुरंत मुख्यतः इनका विभाग चारों वर्णों में ही समाहित था।

मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक इंडिका में भारतीय समाज को 7 वर्गों में विभाजित किया है-

दार्शनिक, किसान, अहिर, कारीगर, सैनिक, निरीक्षक, सभासद।

संभवतया मेगस्थनीज ने उनके द्वारा किए गए जाने वाले अलग-अलग प्रकार के कार्यों को देख कर उनके विषय में इस प्रकार से अनुमान लगाया है वास्तव में भारतीय समाज में चार वर्णों का ही मुख्यतः वर्णन किया गया है और इन वर्णों के अंतर्गत आने वाले व्यक्तियों के द्वारा विभिन्न प्रकार के कार्य किए जाते रहे हैं । मेगास्थनीज ने  लिखा है कोई भी अपनी जाति नहीं बदल सकता था ना ही अपनी जात के बाहर विवाह कर सकता था।
सम्राट अशोक के लेखों से अनुमान लगाया जा सकता है कि अंतर जाति विवाह यदा-कदा होते थे।

विवाह संस्कार:-

विवाह एक पवित्र बंधन माना जाता था जो स्त्री और पुरुष के बीच मंत्रोच्चारण के साथ विधिवत संपन्न किया जाता था।

मौर्य काल में मुख्यतया आठ प्रकार के विवाह प्रचलित थे-

ब्रह्म, आर्ष, प्रजापत्य, गंधर्व, असुर, राक्षस और पैशाच परंतु विवाह वही उत्तम माना जाता था जो माता-पिता की सहमति से किया जाता था।पुरुषों में बहु विवाह की भी प्रथा प्रचलित थी। 
मेगस्थनीज के अनुसार कुछ स्त्रियां आनंद के लिए और कुछ संतान के लिए ब्याही जाती थी।

जनसाधारण में सामान्यतया एक पति या पत्नी विवाह प्रचलित था।

इसके अतिरिक्त पुत्र प्राप्ति के लिए समाज में नियोग प्रथा भी प्रचलित थी।

समाज में विवाह विच्छेद भी हो सकता था कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में इसे मोक्ष कहा है।

स्त्रियों की दशा:-

समाज में स्त्रियों का महत्व पूर्ण स्थान था स्त्रियों का सम्मान माता, पत्नी और पुत्री के रूप में होता था ।यद्यपि पति परिवारिक संपत्ति का मालिक होता था परंतु स्त्री गृह स्वामिनी होकर उन सभी संपत्तियों का उपभोग करती थी।

स्त्रियों को भी अपने पति के अत्याचार से मुक्ति के लिए न्यायालय में जाने का अधिकार था।

सामान्यतः  स्त्रियां घर पर ही रहती थी । मौर्य काल में अंशत: पर्दा प्रथा भी प्रचलित थी केवल परिव्रजिका(सन्यासिनी) घर के बाहर स्वच्छंद रूप से विचरण करती थी।

इस काल में वेश्यावृत्ति का प्रचलन था वेश्याओं को रूप जीवा कहा जाता था।अर्थशास्त्र में वेश्याओं के लिए भी विभिन्न नियमों का प्रतिपादन किया गया है वैश्यालय की मुखिया महिला होती थी जिसे मातृका कहा जाता था।

अर्थशास्त्र में वेश्याओं से भी कर लेने की बात कही गई है प्रत्येक वैश्या अपनी मासिक आमदनी में से दो दिन का भाग राज कर के रूप में अदा करती थी।

समाज में शासन के द्वारा व्यभिचार पर नियंत्रण करने की व्यवस्था की गई थी। अर्थशास्त्र के अनुसार यदि कोई व्यक्ति अपने घर में वैश्यालय खोलता है या व्यभिचार के द्वारा घर में कमाई करता है तो उस स्त्री को वैश्यालय में ले जाकर मातृका के सुपुर्द कर देना चाहिए तथा उस व्यक्ति को कठोर दंड दिया जाना चाहिए।

मनोरंजन के साधन:-

विभिन्न साधनों के द्वारा मनोरंजन किया जाता था जिनमें नृत्य ,गायन ,वादन, घुड़दौड़, रथ दौड़ ,सांड युद्ध ,शिकार ,जुआ खेलना, मेला, उत्सव, तमाशा,सौभिक (मदारी) आदि थे।

धार्मिक जीवन:-

मौर्य युगीन समाज  धर्म के नवीन प्रयोगों से आंदोलित हो रहा था प्राचीन वैदिक धर्म जिसके अनुयाई अधिकांश मात्रा में थे ,ब्राह्मण धर्म कहा जाता है इसके अलावा वैदिक धर्म की प्रतिक्रिया स्वरूप जैन और बौद्ध धर्म उदित होने के पश्चात अपनी जड़ें जमा रहे थे।
 वैदिक धर्म में यज्ञ करना प्रमुख कार्य था इसके अलावा यज्ञ में पशु बलि दी जाने लगी थी। वैदिक धर्म के साथ ही शैव, वैष्णव धर्म भी समाज में प्रचलित  थे जिनमें शिव ,वासुदेव और संकर्षण की पूजा होती थी।

आर्थिक जीवन:-

आचार्य चाणक्य एक महान अर्थशास्त्री थे उन्होंने मौर्य शासन व्यवस्था को चारों तरफ से सुदृढ़ कर दिया। अर्थशास्त्र ग्रंथ और मेगस्थनीज की इंडिका में कृषि पशुपालन एवं उद्योग धंधों के विषय में काफी प्रकाश डाला गया है।

खेती व पशु पालन:-

कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में कृषि के विभिन्न साधन और भूमि के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख किया है तथा किस प्रकार से किस फसल को कब बोना चाहिए इन सारी बातों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। अर्थशास्त्र में गेहूं ,चावल,जो, सांवा ,कोदो ,चना ,गन्ना, सरसों, मटर आदि विभिन्न फसलों का उल्लेख है।पशुपालन में गाय, भेड़ ,बकरी ,घोड़ा,आदि पाले जाते थे।

उद्दोग-धंधे :-

उद्दोग के विभिन्न विभागाध्यक्षों का वर्णन है जिनमें से सूत्राध्यक्ष ( सूत काटने का विभाग) , सीताध्यक्ष(कृषि विभाग) , नावाध्यक्ष( नावों की व्यवस्था करने वाले अधिकारी ) आदि हैं।

काशी ,बंगाल, मालवा सूती वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध थे। इसके अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के रेशम का उत्पादन होता था तथा रेशम चीन से भी मंगाया जाता था इसे चीनपट्ट कहा जाता था।

भारतीय सोने, चांदी, तांबा, लोहा ,सीसा, ज़िंक आदि से परिचित थे इन्हें खानों से निकाला जाता था।

मौर्यकालीन राजाओं ने शासन को सुदृढ़ सुरक्षित बना दिया था । विस्तृत साम्राज्य के लिए मार्गों का निर्माण कराया गया था। सबसे लंबा राजमार्ग तक्षशिला से  पाटलिपुत्र तक था। चंद्रगुप्त मौर्य की सेल्यूकस पर विजय होने से कंधार,काबुल के प्रांत भारत को मिल गए थे तथा यूनानी राजाओं की भारतीय राजाओं से मित्रता हो गई थी चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में मेगस्थनीज दूत था और सम्राट अशोक के दरबार में सीरिया के राजा एंतियोकास ने अपना दूत भेजा था। व्यापारियों के लिए भी सुविधा हुई और भारत से लेकर ईरान, इराक  होते हुए युरोप तक स्थल मार्ग से  व्यापार सुगमता से होने लगा।

भारत का व्यापार जलमार्ग से भी होता था और यह उन्नत अवस्था में था।

भारत और मिस्र का व्यापार अरब सागर के बंदरगाहों से होता था।

साहित्य और कला:-

मौर्य काल में वैदिक ,बौद्ध और जैन धर्म के विभिन्न धर्म ग्रंथों को लिखा गया।
वैदिक ग्रंथों में वेदांग ,धर्मसूत्र आदि की रचना की गई तथा भास के नाटकों को भी रचा गया। पाणिनि की अष्टाध्यायी को भी इसी युग का माना जाता है। इस युग का राजनीति पर लिखा गया विश्व प्रसिद्ध महत्वपूर्ण ग्रंथ कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र है।

इसी काल में सम्राट अशोक ने मोगलीपुत्त्त तिस्स की अध्यक्षता में तीसरी बौद्ध संगति का आयोजन पाटलिपुत्र में किया था । जिन्होंने धम्म पिटक, विनय पिटक के साथ एक अन्य ग्रन्थ कथावत्थु की रचना की जो विस्तृत होकर अभिधम्म पिटक बना।

जैन धर्म के संत स्वयंभू ने दर्श वैकालिक नामक ग्रंथ लिखा ।आचार्य भद्रबाहु ने जैन ग्रंथों पर भाष्य लिखा।

इस समय तक्षशिला विश्वविद्यालय, पाटलिपुत्र ,काशी शिक्षा के  महत्वपूर्ण केंद्र थे।

मौर्य शासकों ने सुंदर-सुंदर भवनों का निर्माण कराया था ।  जिनके विषय में फाह्यान नामक चीनी यात्री सम्राट अशोक के बनवाए भवनों को देखकर  चकित हो गया था और इसे देवों की रचना बताया। 

 कुम्हरार के उत्खनन से मौर्य राज प्रसाद के अवशेष प्राप्त है जो अति सुंदर हैं।

सम्राट अशोक ने हजारों में स्तूपों , चैत्य (चिता पर स्थापित{सामूहिक पूजा का स्थान}),विहार (भिक्षुओं के रहने का स्थान) और स्तंभों का निर्माण कराया था। जिसमें से भरहुत(इलाहाबाद से153 किलोमीटर दूर) और सांची के स्तूप(मध्यप्रदेश के भोपाल के पास) विशेष प्रसिद्ध है ।

 स्तूप की संरचना इस प्रकार है कि इनका व्यास नीचे अधिक होता है  ये ऊपर की ओर बढ़ते जाते हैं जहां इनका व्यास कम होता जाता है और यह अर्ध गोलाकार होते हैं तथा ईंट और पत्थर के बनाए जाते हैं।

अशोक ने स्तंभ का निर्माण कराया और स्तंभों पर अपना लेख लिखवाया यह स्थापत्य कला के शानदार नमूने हैं। इनकी संख्या 30 से अधिक है ।
यह स्तंभ एक ही पत्थर के टुकड़े को काटकर बनाए जाते हैं एक स्तंभ का वजन लगभग 50 टन है इसकी ऊंचाई 15 से मीटर तक होती है नीचे की ओर मोटे और ऊपर की ओर पतले होते जाते हैं। प्रत्येक स्तंभ के शीर्ष पर उल्टे कमल के आकार का शिखर है और उस पर कोई न कोई पशु आकृति बनी है जिनमें सिंह, हाथी ,घोड़ा और बैल की सुंदर मूर्तियां हैं । स्तंभ के मध्य भाग में चक्र,पशु आदि की कलाकृतियां बनी हैं।

अशोक ने गुफाओं का भी निर्माण कराया उनकी दीवारें पर उच्च कोटि की पॉलिश की गई है जिससे वे शीशे की तरह चमकदार प्रतीत होती हैं।

इस प्रकार से मौर्ययुग की स्थापत्य कला अत्यंत उन्नत अवस्था में थी इन्हें विश्व की भवन निर्माण कला में सर्वोच्च स्थान प्रदान किया जा सकता है।

 इन्हें भी देखें:-

चंद्रगुप्त मौर्य

बिन्दुसार

अशोक महान्

मौर्य राजवंश (विकिपीडिया)

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