पुष्यभूति वंश का प्रारम्भ कैसे हुआ

पुष्यभूति वंश का संस्थापक पुष्यभूति नामक राजा था उसने थानेश्वर में इस वंश की स्थापना किया तथा श्रीकंठ को अपनी राजधानी बनाया बाणभट्ट ने हर्ष चरित में उसे प्रतापी राजा कहा है।

पुष्यभूति वंश की उत्पत्ति:-

विद्वान इसमें एकमत नहीं है कुछ विद्वानों के अनुसार वे क्षत्रिय थे बाणभट्ट ने भी उन्हें क्षत्रिय होने का संकेत दिया है। परंतु चीनी यात्री ह्वेनसांग ने हर्ष को फी शे कहा है जिसका अर्थ वैश्य होता है।

आर्य मंजुश्री मूलकल्प में भी उसे वैश्य कहा गया है।
कनिंघम ने इसका खंडन करते हुए कहा है कि संभवतः ह्वेनसांग ने वैश्य और बैस को एक ही समझ लिया। बैस एक क्षत्रिय वंश था।

प्रभाकर वर्धन:-

पुष्यभूति के पश्चात अन्य राजाओं ने राज्य किया अंत में आदित्य वर्धन का पुत्र प्रभाकर वर्धन पुष्यभूति वंश का पूर्ण स्वतंत्र शासक हुआ उसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी और अपनी दिग्विजय में पंजाब, सिंधु तथा आसपास के राज्यों पर अपना अधिकार स्थापित किया।  प्रभाकर वर्धन का सामना हूणों से भी हुआ वे उसके समय में गांधार और सियालकोट के आस पास बस गए थे और वहां से भारत के अंदरूनी भागों पर आक्रमण का प्रयास करते रहते थे। प्रभाकर वर्धन ने हूणों को पूरी तरह से परास्त कर दिया। बाणभट्ट कृत हर्षचरित के अनुसार उसने  सिंधु, गांधार, गुर्जर, लाट, और मालवा पर अपना प्रभाव स्थापित किया था।

राज्यवर्धन:-

प्रभाकर वर्धन की मृत्यु के पश्चात उसका बड़ा पुत्र राज्यवर्धन सिंहासन पर बैठा। प्रभाकर वर्धन की मृत्यु का लाभ उठाकर गौड़ नरेश शशांक ने मालवा के शासक देव गुप्त के साथ मिलकर कान्यकुब्ज पर आक्रमण कर दिया और राज्यवर्धन के बहनोई गृहवर्मा को मार डाला तथा उसकी बहन राजश्री को बंदी बना लिया परंतु वह बंदी गृह से भाग निकली तथा विंध्याचल की ओर चली गई।

यह खबर मिलने पर राजवर्धन ने सेना लेकर  कान्यकुब्ज की ओर प्रस्थान किया जहां उसका सामना मालवा के देव गुप्त से हुआ देवगुप्त को पराजित करके कान्यकुब्ज को उसने अपने अधिकार में कर लिया परंतु उसके अंदर अनुभव की कमी थी। प्रारंभ से ही उसका झुकाव बौद्ध धर्म की ओर था और वह सरल स्वभाव का था जिसके कारण गौड़ नरेश शशांक के षणयंत्र में फंस गया। जब राज्यवर्धन ने कान्यकुब्ज पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया उस समय गौड़ नरेश शशांक ने अपनी राजकुमारी के विवाह का प्रस्ताव उसके पास भेजा इस निमंत्रण को स्वीकार करके वह अकेले ही शशांक के शिविर में चला गया जहां शशांक ने अकेला पाकर उसे मार डाला।

राज्यवर्धन की असामयिक मृत्यु के पश्चात उसका छोटा भाई हर्षवर्धन 606 ईसवी में मात्र 16 वर्ष की आयु में श्रीकंठ के सिंहासन पर बैठा।

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