पल्लव वंश

पल्लव वंश भारत का एक प्राचीन राजवंश था। इसने दक्षिण भारत की राजनीति को पर्याप्त समय तक प्रभावित किया।

इतिहास जानने के स्रोत:-

दंडी कृत अवंती सुंदरी कथासार, शेक्किलार कृत पेरियपुराण, तमिल ग्रंथ नंदिक कलमबकम, महेंद्र वर्मन कृत मत्तविलास प्रहसन, बौद्ध ग्रंथ महावंश, चीनी यात्री ह्वेनसांग का यात्रा विवरण। इसके अतिरिक्त पुरातात्विक साक्ष्यों में महेंद्र वर्मन का कसकुडी अभिलेख, वैकुंठ पेरुमाल मंदिर के लेख, वैल्यूर स्तंभ लेख, चारु देवी का ब्रिटिश म्यूजियम पत्र, कुमार विष्णु का चैंदलूर अभिलेख आदि प्रमुख हैं।

पल्लव वंश की उत्पत्ति:-

पल्लवों की उत्पत्ति किस प्रकार हुई इसके संबंध में विद्वानों में मतभेद है।

कुछ विद्वान इन्हें आर्य जाति का, कुछ द्रविड़ और कुछ विदेशी जाति का कहते हैं।

इनको विदेशी कहने वाले विद्वानों के अनुसार ये विदेशी पल्हवों (पार्थियन) के वंशज थे। इस मत के समर्थन में उनका कहना है कि इनकी गणना चोल, चेर और पांड्य राजाओं के साथ नहीं होती।

इस मत का समर्थन करने का कोई आधार नहीं है क्योंकि राजशेखर के भुवनकोष में पल्लव और पल्हव का अलग-अलग वर्णन किया गया है जिससे पता चलता है यह दो अलग-अलग जातियां थी।ऐतिहासिक स्रोतों से भी पल्हवों का उत्तर से दक्षिण की तरफ पहुंचने का कोई वर्णन नहीं मिलता।

कुछ विद्वान इन्हें नागवंशी मानते हैं जबकि कुछ उन्हें भारत की जंगली जातियों से संबद्ध मानते हैं।जबकि कुछ अन्य इतिहासकार जैसे काशी प्रसाद जायसवाल इन्हें उत्तर से दक्षिण की तरफ गए हुए ब्राह्मणों का वंशज मानते हैं क्योंकि कदंब आदि कुछ राजवंशों में शर्मा से वर्मा जो क्षत्रिय उपनाम था बनने का पता चलता है।

पल्लवों की भाषा:-

इन्होंने संस्कृत भाषा को प्रोत्साहन प्रदान किया।पल्लव राजाओं के विभिन्न शासकीय लेख संस्कृत भाषा में पाए गए हैं। इसके अतिरिक्त चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरण में भी दिया गया है कि पल्लव मध्य देश के समान भाषा बोलते हैं। क्योंकि ह्वेनसांग ने लगभग 638-39 ईसवी में कांची का भ्रमण किया था।

पल्लव उत्तर भारतीय राजाओं के समान अश्वमेध , वाजपेय यज्ञों का अनुष्ठान करते थे।इसका वर्णन उनके प्राकृत भाषा में लिखे गए हीरहडगल्ली के लेख में दिया गया है।

बप्पदेव:-

पल्लव वंश की स्थापना बप्पदेव ने तीसरी सदी के लगभग की।उसका राज्य आधुनिक आंध्र प्रदेश के पास से लेकर कुछ दक्षिण तक था।

उसकी दो राजधानियां धान्यकट (अमरावती) व कांची थीं।

बप्प देव का पुत्र शिवस्कंदवर्मन धर्म महाराजा हुआ।

हीरहडगल्ली के लेख के अनुसार उसने अपने राज्य का विस्तार किया। अश्वमेध यज्ञ भी किया।उसके पश्चात कुछ समय तक इनका इतिहास नहीं मिल पाता है।

समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार उसके समय में पल्लवों एक प्रसिद्ध राजा विष्णुगुप्त हुआ जिसने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार की थी।

उसके पश्चात का पल्लव वंश का इतिहास अंधकार पूर्ण है।

सिंह विष्णु:-

छठी सदी में पल्लवों का एक शक्तिशाली राजा सिंह विष्णु हुआ जो एक विजेता शासक था उसने मालव, सिंघल, पांड्य, चोल आदि राजाओं को पराजित किया जिससे उसका राज्य कावेरी नदी तक विस्तृत हो गया।

महेंद्र वर्मन प्रथम:-

सिंह विष्णु के पश्चात उसका पुत्र महेंद्र वर्मन प्रथम राजा हुआ उसका चालुक्य राजा पुलकेशियन द्वितीय के साथ संघर्ष हुआ जिसमें चालूक्यों ने वेंगी का राज्य पल्लवों से छीन लिया और वहां पर पुलकेशिन के भाई कुब्ज विष्णुवर्धन को राजा बनाया गया।

पुलकेशिन द्वितीय के एहोल प्रशस्ति के अनुसार उसने कांची में पल्लव शासक महेंद्रवर्मन को परास्त किया था।

महेंद्र वर्मन एक उदार एवं लोक कल्याणकारी शासक था।प्रारंभ में वह जैन धर्म का अनुयाई था बाद में शैव  हो गया उसने ब्रह्मा, विष्णु और शिव के मंदिरों का निर्माण करवाया।

द्रविड़ क्षेत्र में चट्टानों को काटकर मंदिर बनाने की कला का प्रवर्तन महेंद्रवर्मन के द्वारा किया गया।

वह एक विद्वान शासक था और उसने मत्त विलास प्रहसन नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की।

नरसिंह वर्मन:-

महेंद्र वर्मन के पश्चात उसका पुत्र नरसिंह वर्मन शासक बना जिसके समय में पुलकेशिन द्वितीय ने कांची पर आक्रमण किया परंतु वह अधिक शक्तिशाली सिद्ध हुआ उसने पुलकेशियन को पीछे धकेल दिया और अपने सेनापति सिरुटोंड को वातापी पर आक्रमण करने के लिए भेजा।

भयंकर युद्ध में पुलकेशियन मारा गया। इस उपलक्ष में उसने वातापीकोंड, महामल्ल की उपाधि धारण की।
इस घटना से पल्लव दक्षिण भारत के निर्विवाद स्वामी हो गए।

नरसिंह वर्मन ने लंका राज्य की राजनीति में भी हस्तक्षेप किया तथा अपने समर्थक मार वर्मन को अपनी नौसेना की सहायता से लंका राज्य का अधिपति बना दिया।

नरसिंह वर्मन ने महामल्लपुरम नामक नगर बसाया तथा अनेक मंदिरों का निर्माण किया।

उसके समय में 639 ईसवी के आसपास चीनी यात्री  ह्वेनसांग कांची की यात्रा पर गया था तथा उसने इस राज्य का सुंदर वर्णन किया है।

नरसिंह वर्मन के पश्चात महेंद्र वर्मन द्वितीय कुछ समय के लिए राजा हुआ।

परमेश्वर बर्मन प्रथम:-

महेंद्र वर्मन द्वितीय के पश्चात परमेश्वर बर्मन प्रथम शासक बना उसके समय में शत्रु प्रबल हो गए और गडवाल पत्र लेख के अनुसार चालुक्य शासक विक्रमादित्य प्रथम ने उसको पूरी तरह से परास्त किया। परंतु कुछ समय पश्चात ही परमेश्वरवर्मन ने अपनी शक्ति को संगठित कर लिया और चालुक्य राज को परास्त किया।

वह शिव का उपासक था।

नरसिंह वर्मन द्वितीय:-

7 वीं सदी में इनका नरसिंह वर्मन द्वितीय नामक राजा हुआ जो शांतिप्रिय था। उसने अपने राज्य में अनेक मंदिरों का निर्माण कराया जिनमें कांची का कैलाश मंदिर, महाबलीपुरम के अन्य मंदिर शामिल हैं।

उसके दरबार में प्रसिद्ध कवि दांडी रहते थे।

इसके पश्चात उसका उत्तराधिकारी परमेश्वरवर्मन द्वितीय गद्दी पर बैठा फिर नंदिवर्मन शासक हुआ।

नंदिवर्मन:-

नंदिवर्मन के राज्यारोहण के समय राज परिवार में कलह हो गया और जनता की सहायता से वह किसी प्रकार राजा चुना गया। उसका आसपास के शत्रु राजाओं से लगातार युद्ध होता रहा।

उसी के समय में चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय ने कांची पर आक्रमण किया परंतु पराजित हुआ किंतु राष्ट्रकूट शासक दंति दुर्ग ने उसे पराजित कर दिया।

उसने पल्लव मल्ल की उपाधि धारण की थी तथा वह वैष्णव धर्म का अनुयाई था।

नंदि वर्मन के पश्चात उसका पुत्र दंतिग शासक बना।उसका युद्ध राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय से हुआ परंतु वह पराजित हो गया।

अपराजित वर्मन:-

पल्लव वंश का अंतिम शासक अपराजित वर्मन था। उसकी गंग शासकों से मित्रता थी।

गंगों से सहायता प्राप्त करके उसने पांड्यों को परास्त किया था।
अंत में चोल राजा आदित्य प्रथम ने उसे परास्त करके अपने राज्य में मिला लिया।

इस प्रकार पल्लव राज्य का अंत हुआ।

पल्लव कालीन सामाजिक एवं राजनीतिक स्थिति:-

धर्म:-

पल्लव काल में विभिन्न धार्मिक संप्रदाय फले फूले और शासकों ने सब को सुरक्षा प्रदान किया।

प्रारंभिक समय में पल्लव राज्य में अनेक बौद्ध बिहार थे और उनके प्रसिद्ध बौद्ध संत धर्मपाल वहां रहते थे, परंतु बाद में धीरे-धीरे ब्राह्मण धर्म का प्रभाव अधिक बढ़ने लगा लोग शिव और विष्णु की बहुतायत में पूजा करते थे।

वैष्णव धर्म के आचार्य सुंदर मूर्ति, पुडम, नानमुगंती, तिरूचंदविरुत्तम, शैव धर्म के नायनार आचार्य, अप्पार, तिरुमंगै आदि प्रसिद्ध संत थे।

इसके अतिरिक्त जैन धर्म का भी बहुत विकास हुआ क्योंकि पल्लवों का राजा महेंद्र पहले जैन धर्म का अनुयाई था बाद में शैव हो गया।

साहित्य:-

पल्लव दक्षिण भारत में निवास करते थे परंतु उन्होंने संस्कृत भाषा और साहित्य को राजाश्रय प्रदान किया।

राजाओं के अधिकांश सरकारी लेख संस्कृत में पाए जाते हैं इसके अतिरिक्त उन्होंने तमिल भाषा का भी प्रयोग किया।
उस समय के प्रसिद्ध विद्वान भारवि द्वारा रचित किरातार्जुनीयम्, दांडी द्वारा रचित काव्यादर्श, दशकुमारचरितम् प्रसिद्ध कृति है।

पल्लव वंश के शासक महेंद्र वर्मन प्रथम ने मत्त विलास प्रहसन व भगवदज्जुकीयम नामक नाटक लिखा इसके अलावा तमिल साहित्य में तिरुमूलर रचित रिमंदिरम एवं सुंदर मूर्ति रचित तिरूतोंडतोगै आदि ग्रंथप्रमुख हैं।

कला:-

स्थापत्य कला के निर्माण में पल्लव लोगों की विशेष देन है। उन्होंने बड़ी बड़ी चट्टानों को काटकर और ईंटों के द्वारा बड़े बड़े मंदिरों का निर्माण किया। सुन्दर सुन्दर मूर्तियों का निर्माण किया।

पल्लव काल में मूर्ति कला की चार शैलियों का विकास हुआ:-

1- महेंद्र शैली –

इस शैली का प्रवर्तन महेंद्र वर्मन प्रथम ने किया था।इसकी प्रमुख विशेषता तोरण, द्वारपाल व वृत्ताकार लिंग है। इस तरह के मंदिर पहाड़ों व गुफा मंडप को काटकर बनाए गए हैं। गुफा मंडप में गर्भगृह दोनों किनारों पर तथा सामने स्तंभ युक्त बरामदा है।

प्रमुख मंदिर:- मामंडूर का विष्णु मंदिर, पांचपांडव मंदिर, लक्षितायन मंडप आदि प्रमुख हैं।

2- मामल्ल शैली:-

इसका प्रवर्तन नरसिंह वर्मन मामल्ल नामक राजा ने किया था। इसकी प्रमुख विशेषता पहाड़ों को रथों की तरह काटकर बनाया जाना है।

प्रमुख मंदिर:-

मामल्लपुरम में पांच पांडव मंदिर का निर्माण कराया गया।समुद्र के किनारे स्थित चट्टानों को अलग अलग काटकर पांच रथों को बनाया गया। यह भगवान शिव का मंदिर है जो बहुत ही सुंदर और अलंकृत है। उसकी दीवारों पर राजा और रानी की कृतियां उकेरी गई है। 8 कोण वाला सिंह स्तंभ है तथा मुख्य द्वार अलंकृत है।उसके अन्य प्रमुख मंदिर वाराह मंडप, महिषमर्दिनी मंडप, महाबलीपुरम के पंच पांडव गुहा मंडप हैं।  रथ मंदिरों में अर्जुन रथ, धर्मराज रथ, भीम रथ, गणेश रथ, द्रौपदी रथ, सहदेव रथ, पिंडारी रथ आदि प्रमुख हैं।

3- राज सिंह शैली:-

ऐसी शैली के मंदिरों की प्रमुख विशेषता ऊंचे शिखर और चपटी छत हैं।इसके अतिरिक्त मंदिर पतले स्तंभ युक्त, सभा मंडप गलियारा व विमानयुक्त हैं।उस समय के राजा राज सिंह ने प्रथम बार इस शैली के मन्दिरों में ईंट पत्थर के प्रयोग की प्रथा प्रारंभ की।

प्रमुख मंदिर:-

कांची का कैलाश मंदिर, महाबलीपुरम का मंदिर आदि।

4- अपराजित शैली:-

इस शैली की प्रमुख विशेषता ऊपर की ओर पतले होते शिखर व गोपुरम का प्रारंभ है।

प्रमुख मंदिर:-

गुडीमल्लम का परमेश्वर मंदिर,वैकुंठ पेरूमाल का विष्णु मंदिर,चिंगलपेट का बड़ामलीश्वर मंदिर आदि प्रमुख हैं।

चित्र कला:-

कांची, सितन वासल व तिरूमलैपुरम के मंदिर की दीवारों पर राजपरिवार और पशु पक्षियों के बनाए गए चित्र प्रमुख हैं।

इन्हें भी देखें:-

पल्लव राजवंश (विकिपीडिया)

पल्हव वंश(पार्थियन)

चोल वंश

चेर राजवंश

पांड्य वंश

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