जैन धर्म का संपूर्ण इतिहास

जैन धर्म भारत का एक प्राचीन धर्म है।

सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति कब प्रारंभ हुई कोई नहीं जानता।विश्व के अन्य धर्म और सभ्यताएं कई बार बनी और नष्ट हुई परन्तु यह अभी तक जीवित है। इसका कारण क्या है, इसका कारण है कि सनातन धर्म के द्वारा सभी धर्मों एवं संप्रदायों को मान्यता देना और उनकी सच्चाइयों को स्वीकार करना इसी कारण से यहां पर अनेक संप्रदायों का उदय हुआ।

प्राचीन भारत के दो महत्वपूर्ण संप्रदाय बौद्ध धर्म और जैन धर्म है। जैन धर्म के बारे में बात होते ही भगवान महावीर का चित्र सामने आ जाता है जैन धर्म को एक संप्रदाय के रूप में स्थापित करने का मुख्य श्रेय भगवान महावीर को है उन्होंने दिगंबर परंपरा का पालन किया था जैन धर्म के ऋषियों को तीर्थंकर कहा जाता है तीर्थंकर का अर्थ होता है वह व्यक्ति जो मनुष्यों एवं देवताओं दोनों के द्वारा पूजित हो तथा ऐसा व्यक्ति जो स्वयं अपना उद्धार करें और अपने आसपास के रहने वाले व्यक्तियों का भी उद्धार करें वह तीर्थंकर कहा जाता है

उनके ग्रंथों के अनुसार जैन धर्म के अब तक 24 तीर्थंकर हो चुके हैं अर्थात अब तक 24 तीर्थंकरों ने दिगंबर परंपरा का पालन किया है

जैन धर्म के पहले तीर्थंकर ऋषभदेव :-

इस धर्म के पहले तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव थे। भगवान ऋषभदेव सूर्यवंशी थे और इनका जन्म स्वयंभू मनु के वंश में हुआ था इनके पिता का नाम नाभि था और उनकी माता का नाम मेरु देवी था। ऋषभदेव बचपन से ही तेजस्वी थे और वे अपनी प्रजा का आदर करते थे जिसके कारण राजा नाभि उनसे बहुत प्रसन्न रहते थे अंततः उन्हें अपना संपूर्ण राजपाट सौंप कर तपस्या के लिए वन को चले गए।

विवाह के पश्चात ऋषभदेव के कई पुत्र हुए। उनके सबसे बड़े पुत्र भरत थे जिन्हें जड़ भरत भी कहा जाता है और जैन ग्रंथों के अनुसार उन्हीं के नाम पर भारतवर्ष का नाम भारत पड़ा समय आने पर ऋषभदेव ने अपना सारा राजपाट भरत को सौंप दिया और ईश्वर प्राप्ति में लग गए।

राज्य त्याग कर ईश्वर प्राप्ति में लगना:-

उनके अंदर ईश्वर की प्राप्ति की ऐसी लगन लगी कि वह सब कुछ भूल गए और उन्होंने अपनी सारी सुख सुविधाओं का त्याग कर दिया और अपने देश की सीमा के बाहर चले गए जिससे लोग उन्हें पहचान ना सकें । इसके बाद उन्होंने अपना सारा सामान भी छोड़ दिया और केवल हथेली पर रखकर भोजन करने लगे अंत में ईश्वर प्राप्ति की मार्ग में बाधक जानकर उन्होंने अपने वस्त्र भी त्याग दिए क्योंकि उन्हें लगा यदि वस्त्र उनके पास रहेंगे तो उन्हें पहनने ओढ़ने की चिंता उन्हें लगातार सताती रहेगी जिससे ईश्वर का ध्यान करने के मार्ग में बाधा आएगी इसलिए उन्होंने अपना वस्त्र भी त्याग दिया और बताया कि अब दिशाएं ही मेरा अंबर(वस्त्र ) होंगी अर्थात वे दिगंबर कहलाए।

इस तरह से वे मिट्टी ,कीचड लपेटे हुए चारों तरफ घूमने लगे जिससे लोग उन्हें पागल समझने लगे। एक बार वन में भयंकर आग लगी हुई थी उसे देखकर वे ईश्वर का स्मरण करते हुए उस आग लगे हुए वन में प्रवेश कर गए और अपना शरीर त्याग दिया (सं. भागवत महापुराण)

ऋषभदेव के पश्चात जैन धर्म के अन्य कई तीर्थंकर हुए परन्तु उनके बारे में अधिक जानकारी नहीं है।

जैनधर्म के 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ थे जो महाभारत कालीन थे।

जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे जो काशी के नागवंशीय राजा अश्वसेन की रानी वामा से उत्पन्न हुए थे ये महावीर स्वामी से लगभग 250 वर्ष पहले हुए थे।

भगवान महावीर:-

भगवान महावीर जैन धर्म के 24 वे तीर्थंकर थे महावीर स्वामी के बचपन का नाम वर्धमान था उनका जन्म 540 ईसा पूर्व में वैशाली के कुंड ग्राम में हुआ था इनके पिता का नाम सिद्धार्थ था जो ज्ञात्रिक कुल के गण मुख्य थे इनकी माता का नाम त्रिशाला देवी था जो लिच्छवि राजा चेटक की बहन थी।

दिगंबर परंपरा के अनुयाइयों के अनुसार महावीर स्वामी ने विवाह नहीं किया था वह ब्रह्मचारी थे जबकि श्वेतांबर परंपरा के अनुयायियों के अनुसार महावीर स्वामी ने विवाह किया था और उनकी पत्नी का नाम यशोदा था जो कुन्डिन्य गोत्र की राजकुमारी थी और उनसे एक पुत्री की उत्पत्ति हुई थी जिसका नाम अनोज्या प्रियदर्शनी था। प्रियदर्शिनी के पति ने भी जिसका नाम जामिल था जैन धर्म को स्वीकार कर लिया था।

महावीर स्वामी जब 30 वर्ष की अवस्था के थे तब उन्होंने अपने बड़े भाई नन्दिवर्धन से आज्ञा लेकर अपना घर बार त्याग दिया था और तपस्या करने चले गए थे लगभग 12 वर्ष 6 माह और 15 दिन तक लगातार तपस्या करने के बाद महावीर स्वामी को जुम्भिक ग्राम में ऋजुपालिका नदी के किनारे एक शाल के वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई।

ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात वे जिन, अर्हक, निर्ग्रन्थ कहलाए। जिन का अर्थ होता है विजेता जो अपने अंतर्मन पर विजय प्राप्त कर लें उसे जिन कहा जाता है। अर्हक का अर्थ होता है पूज्य और निर्ग्रन्थ का अर्थ होता है जिसे किसी प्रकार का कोई सांसारिक बंधन ना बांध सके अर्थात बंधन हीन।

फिर महावीर स्वामी ने जनसंघ की स्थापना पावापुरी नामक स्थान पर की और अपनी उम्र के 72 वर्ष तक लगातार जैन धर्म का प्रचार प्रसार करते रहे अंत में 468 ईसा पूर्व में कार्तिक अमावस्या के दिन पावापुरी नामक स्थान पर भगवान महावीर निर्वाण को प्राप्त किये।

जैन धर्म की संगतियाँ:-

महावीर स्वामी के निर्वाण प्राप्ति के पश्चात जैन धर्म का प्रथम सम्मेलन पाटलिपुत्र नामक स्थान पर 322 से 298 ईसा.पू. तक चला और इसकी अध्यक्षता स्थूलभद्र ने की थी और इसी सम्मेलन में श्वेतांबर और दिगंबर के रूप में जैन धर्म दो भागों में विभक्त हुआ श्वेतांबर वे कहलाते हैं जो श्वेत वस्त्र पहनते हैं जबकि दिगंबर बिना वस्त्रों के रहते हैं। दिगंबर मुनियों का जीवन तंत्र कठिन होता है।

300 ईसा पूर्व के लगभग मगध में 12 वर्षों का भीषण अकाल पड़ा इसी कारण भद्रबाहु अपने शिष्यों के सहित कर्नाटक चले गए जबकि स्थूलभद्र अकाल के दौरान अपने शिष्यों के साथ मगध में ही डटे रहे जब भद्रबाहु वापस आए तो स्थूल भद्र के अनुयायियों के साथ उनका भीषण मतभेद हो गया इसी कारण से जैन धर्म श्वेतांबर और दिगंबर दो भागों में विभक्त हुआ स्थूलभद्र के अनुयाई दिगंबर कहलाए ये निर्वस्त्र रहते थे जबकि भद्रबाहु के अनुयाई श्वेतांबर कहलाए जो श्वेत वस्त्र पहनते थे।

द्वितीय बौद्ध संगति वल्लभी नामक स्थान पर 512 ईसवी में हुई थी और इसकी अध्यक्षता देवार्धि क्षमा श्रमण ने की थी और इस सम्मेलन में जैन धर्म के धर्म ग्रंथों का संकलन किया गया और भगवान महावीर की शिक्षाओं को संकलित किया गया।

जैन धर्म की शिक्षाएं :-

कैवल्य मोक्ष प्राप्ति के लिए महावीर स्वामी ने तीन साधन बताये हैं सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक चरित्र इनको त्रि रत्न कहते हैं।

सम्यक ज्ञान का अर्थ होता है तीर्थंकरों के उपदेशों का ध्यान पूर्वक अध्ययन जिससे सच्चा ज्ञान प्राप्त हो।

जैनियों के सम्यक दर्शन का अर्थ होता है तीर्थंकरों में पूरा विश्वास।

सम्यक चरित्र का अर्थ होता है सदाचारमय जीवन।

जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने चार महाव्रत बताये थे।

सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह

महावीर स्वामी ने इसमें पांचवा व्रत जोड़ दिया जो ब्रह्मचर्य है यद्यपि जैन धर्म में अहिंसा पर ही अधिक बल दिया गया

जैन धर्म के 24 तीर्थंकर :-

इस धर्म के कुल 24 तीर्थंकर हुए। सभी तीर्थंकरों के विशिष्ट चिन्ह किसी पशु के नाम पर हैं।

जैन धर्म का प्रचार :-

 महावीर स्वामी के प्रथम अनुयाई उनके दामाद  अनोज्या प्रियदर्शिनी के पति जामिल बने।

प्रथम जैन भिक्षुणी नरेश दधि वाहन की पुत्री चंपा थी।

महावीर स्वामी ने अपने शिष्य कोई 11 गण धरों में विभाजित किया था।

आर्य सुधर्मा अकेला ऐसा गंधर्व था जो महावीर स्वामी की निर्वाण के पश्चात भी जीवित था और जैन धर्म का प्रथम उपदेशक बना।

जैन धर्म को मानने वाले शासकों में उदयन, चंद्रगुप्त मौर्य, अमोघवर्ष , खारवेल आदि थे।

खजुराहो में स्थित जैन मंदिरों का निर्माण चंदेल शासकों ने किया था।

जैन तीर्थंकरों की जीवनी भद्रबाहु द्वारा रचित कल्पसूत्र में है।

महावीर स्वामी ने जैन धर्म और सदाचरण के प्रचार प्रसार के लिए अथक परिश्रम किया इसका वर्णन जैन ग्रंथों में मिलता है। जैन धर्म के इतिहास में गौतम इंद्र मूर्ति नामक शिष्य का भी महत्वपूर्ण स्थान है उन्होंने भी अंत में केवलिन पद को प्राप्त किया।

महावीर स्वामी एक स्थान पर रहकर अपने धर्म का प्रचार-प्रसार नहीं करते थे वरन विभिन्न स्थानों पर घूम कर अपनी शिष्य मंडली के साथ पहुंचते थे और जनता से सीधा संवाद करते थे। सबसे पहले उन्होंने जैन धर्म का प्रचार प्रसार अपने कुल के ज्ञातृक क्षत्रियों में किया।

लिक्षवी और विदेह राज्य में प्रचार-प्रसार के बाद महावीर स्वामी राजगृह गए जहां का राजा श्रोणिक था वह उनसे इतना भी प्रभावित हुआ कि अपनी संपूर्ण सेना के साथ बड़े समारोह में महावीर स्वामी का स्वागत किया।

महावीर के मामा चेटक की पांच लड़कियां मगध ,वत्स, अंग, सिंधु, अवन्ति में ब्याही गई थी जिससे वहां पर भी जैन धर्म का प्रचार हुआ।

मूल दर्शन:-

जैन धर्म अनीश्वर वादी है परन्तु यह आत्मा और पुनर्जन्म में विश्वास करता है। बौद्ध धर्म न तो ईश्वर को मानता है न ही आत्मा को। जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक प्राणी प्रकृति के नियमों से बंधे हैं उसी के चक्र के अनुसार सबका जीवन चलता है ईश्वर जैसी कोई सत्ता नहीं है।

जैन धर्म बौद्ध धर्म से अधिक विस्तृत नहीं हुआ इसका कारण था कि जैन धर्म का आचार मार्ग बहुत कठोर और कष्ट साध्य था इसका पालन लोगों के द्वारा करना कठिन था अतः वैश्यों ने इसका अधिक पालन किया परंतु जैन धर्म ठोस रूप में भारत में अब भी विद्यमान है जबकि बौद्ध धर्म भारत से अधिक विदेशों में।

धार्मिक साहित्य :-

जैन धर्म के धार्मिक साहित्य को हम प्रधानतः 6 भागों में विभक्त कर सकते हैं

द्वादश अंग –

इसके अंतर्गत जैन भिक्छुओं के लिए नियम बनाए गए हैं उन्हें किस प्रकार से रहना चाहिए किस प्रकार से तपस्या करनी चाहिए और जीव रक्षा के लिए किस प्रकार से तत्पर रहना चाहिए आदि विभिन्न बातों का इसमें वर्णन किया गया है।

द्वादश उपांग –

इसमें प्रत्येक अंग का एक उपांग बनाया गया है।

10 प्रकीर्ण –

इसमें जैन धर्म संबंधित विभिन्न विषयों का वर्णन किया गया है।

शट छेद सूत्र :-

इनमें जैन भिक्छुओं एवं भिक्छुणियों के लिए विविध नियमों का वर्णन करके उन्हें दृष्टांत द्वारा प्रदर्शित किया गया है।

चार मूल सूत्र :- इसमें भिक्छुओं के सम्बंधित नियम हैं।

विविध :-

इसके अंतर्गत बहुत से ग्रंथ आते हैं परंतु सबसे महत्वपूर्ण नंदी सूत्र और योग द्वार है इसके अंतर्गत जैन भिक्षु से संबंधित सभी विषयों को समाहित किया गया है यह एक प्रकार से विश्व कोश के प्रकार का ग्रंथ है।

जैन धर्म के महत्वपूर्ण धर्म स्थल :-

जैन धर्म के धर्म स्थलों को जिनालय व मंदिर कहा जाता है। इनके कुछ प्रमुख धर्म स्थल निम्न हैं:-

सम्मेद शिखर सिद्ध क्षेत्र (झारखण्ड ) -गिरिडीह रेलवे स्टेशन से लगभग 30 किलो मीटर।

कोलुआ पहाड़ :- गया के पास है। जैन धर्म के दसवे तीर्थंकर पारसनाथ जी ने ज्ञान प्राप्त किया था।

पावापुरी सिद्ध क्षेत्र :- भगवान् महाबीर मोक्ष स्थल और उनके चरण चिन्ह हैं। बिहार शरीफ के पास।

राजगृहि :- बिहार शरीफ के 35 किलोमीटर लगभग है

कुण्डलपुर :- नालंदा स्टेशन से 4 किलोमीटर दूर भगवान महावीर का जन्म स्थल।

चम्पापुर :-भागलपुर रेलवे स्टेशन के पास। मन्दारगिरि सिद्ध क्षेत्र।

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