चोल वंश

चोल वंश दक्षिण भारत का एक प्रमुख राजवंश था उसने भारतीय राजनीति को काफी समय तक प्रभावित किया।

चोल राष्ट्र पेन्नार और  बेल्लारु नदियों के बीच के क्षेत्र में बसा हुआ था जो समुद्र तट तक जाता था।

प्रारंभ में उनकी राजधानी त्रिचनापल्ली के पास उरगपुर आधुनिक उरैयूर थी। बाद में कावेरिपट्टनम, तंजुवुर (तंजौर), गंगकोड राजधानियां रहीं।

चोल शब्द की व्युत्पत्ति चूल से हुई है जिसका अर्थ होता है सिर, श्रेष्ठ। चोल भारतीय राजाओं के शिरोमणि थे इसीलिए चोल कहलाए।

चोल साहित्य और उनके उत्कीर्ण लेखों में उन्हें सूर्य वंशी कहा गया है।चोल शासकों ने संस्कृत भाषा को प्रोत्साहन दिया तथा उत्तर भारत से बहुतायत संख्या में ब्राह्मणों और क्षत्रियों को बुलाकर बसाया था।

इतिहास जानने के स्रोत:-

महाभारत, कात्यायन का वार्तिक ग्रंथ, बौद्ध ग्रंथ महावंश, संगम साहित्य आदि। तमिल ग्रंथों में वीर शोलियम, जयगोंडार की कलिंगत्तुपरिणी, कोट्टकुत्तन की कुलौतुंगन पिल्लै इसके अलावा चोल वंश चरित्र,नव चोल चरित्र आदि ग्रंथ प्रमुख हैं। कन्नड़ साहित्य में रन्न का गदा युद्ध व पंप का पंप भारत नामक ग्रंथ प्रमुख हैं।

शिलालेखों में वीर राजेंद्र का कन्याकुमारी शिलालेख, राजेंद्र का तिरुवांलगाडु व करांदाई लेख, राज राज का लिंडन लेख आदि हैं और समकालीन शासकों के भी शिलालेखों से कुछ जानकारियां प्राप्त होती हैं।

चीनी यात्रियों में व्हेनसांग का यात्रा विवरण चाउ फेन चि आदि के विवरण।

मंदिरों की दीवारों पर लिखे लेख, सिक्कों से भी  इस वंश का इतिहास जानने में सहायता मिलती है।

चोल वंश के प्रारंभिक शासक:-

सम्राट अशोक के अभिलेखों में मौर्य साम्राज्य के दक्षिण में चोल राज्य का वर्णन है। बौद्ध ग्रंथ महावंश में चोल रत्थ और सिंघल के संबंधों का वर्णन है उसके अनुसार चोल राजा एलार ने सिंघल पर जीत हासिल की थी। पेरी प्लस ऑफ द अर्थियन सी, टाल्मी की ज्योग्राफी में भी चोल देश और उसके बंदरगाहों का उल्लेख किया गया है।

संगम साहित्य में अनेक राजाओं का वर्णन है इनमें करिकाल प्रसिद्ध राजा था और इसने चेर और पांड्य  राजाओं को पराजित किया था। करिकाल के समय में चोलों की राजधानी उरगपुर से हटकर कावेरिपट्टनम में आई थी।

करिकाल के बाद पेरुनरकिल्लि राजा हुआ उसने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया बाद में चोलों का इतिहास अंधकार पूर्ण था। पहले उनके ऊपर आंध्रों का बाद में पल्लवों का आधिपत्य रहा।

काफी समय पश्चात नवीं सदी में विजयादित्य नामक चोल राजा हुआ जो प्रारंभ में पल्लवों का सामंत था। उसने पहले तंजौर पर आक्रमण करके उसे अपने अधिकार में कर लिया था और तंजौर को ही अपनी राजधानी बनाया।

विजयादित्य के पश्चात आदित्य प्रथम चोल वंश का पूर्ण स्वतंत्र शासक हुआ उसने गंगवंशी शासकों की राजधानी तलकाड को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया।

आदित्य प्रथम के पश्चात 907 ईसवी में प्रथम परांतक शासक हुआ। उसने मदुरा के पांड्य शासकों को पराजित किया था। मदुरा का शासक भागकर लंका पहुंच गया। जिससे उसने लंका पर भी आक्रमण किया परंतु उसे सफलता नहीं प्राप्त हुई।

उसपर राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने आक्रमण कर दिया जिससे वह पराजित हुआ और उसका पुत्र राजादित्य मारा गया।

परांतक प्रथम का पौत्र सुंदरचोड हुआ और उसका पुत्र राजराज प्रथम एक शक्तिशाली शासक हुआ।

राजराज प्रथम ( 985 से 1014 ईसवी):-

राजराज प्रथम चोल वंश का एक विजेता शासक था उसने चोल साम्राज्य का विस्तार किया। उसने चेरों की नौसेना को कंडलूर में परास्त कर दिया। फिर उसने वेंगी के चालुक्य, दक्षिण मैसूर के गंग और मदुरा के पांड्य शासकों को पराजित करके अपने अधीन कर लिया। उसने दक्षिण में लंका और उत्तर पूर्व में कलिंग को जीतकर उसपर शासन किया।

शक्तिशाली नौसेना के बल पर राजराज प्रथम ने समुद्री द्वीप जिसमें लक्ष्यद्वीप और मालदीव शामिल थे जीत लिया इसके अलावा उसने श्रीलंका के उत्तरी भाग को भी अपने राज्य में मिला लिया।

राजराज प्रथम का साम्राज्य सुदूर दक्षिण से कर्नाटक, आंध्र और लंका तक विस्तृत था और उसने समुद्री द्वीपों पर भी अपना उपनिवेश स्थापित किया।

राजराज प्रथम ने कल्याणी के चालुक्य शासक सत्याश्रय को बुरी तरह परास्त करके चालुक्य राज्य को नष्ट कर दिया। वेंगी के चालुक्य शासक शक्तिवर्मन को भी परास्त किया और उसके पुत्र विमलादित्य से अपनी पुत्री का विवाह किया।

एक सफल विजेता होने के साथ-साथ राजराज प्रथम विद्या एवं कला का आश्रय दाता था। उसने तंजौर में भगवान शिव का राजराजेश्वर नामक मंदिर बनवाया इस मंदिर की दीवारों पर राजराज प्रथम की विजयों का वर्णन दिया गया है। वह शैव धर्म का अनुयाई था परंतु अन्य संप्रदायों के प्रति सहिष्णु था।

राज राज ने अनेक उपाधियां धारण की थी जिनमें जयगोंड, चोड़मार्तंड, मम्मुडिचोलदेव आदि हैं।

राजेंद्र प्रथम (1012 से 1042 ईसवी तक):-

राज राज के पश्चात उसका पुत्र राजेंद्र प्रथम (1012 से 1042 ईसवी तक) शासक हुआ। वह अपने पिता से भी अधिक महत्वाकांक्षी सिद्ध हुआ।

उसके समय में केरल और पांड्य राज्यों ने विद्रोह कर दिया जिसे उसने दबाकर उन्हें अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया और उन पर अपने अधिकारी नियुक्त कर दिए।

उसने श्रीलंका के दक्षिणी भाग पर अधिकार कर लिया मध्य प्रदेश के गोंडवाना को जीता इसके अलावा वनवासी के कदंब, कल्याणी के चालुक्य विजित किए गए।

1021 ईस्वी में उसने भारत के उत्तरी और पूर्वी भाग की ओर अपना विजय अभियान किया। तिरुमलै अभिलेख के अनुसार ओड्र (उड़ीसा का भाग), दक्षिणी कोसल, बंगाल और मगध से होते हुए गंगा घाटी तक अपनी सेनाओं को पहुंचाया।

राजेंद्र प्रथम ने भी अपनी नौ सेना को शक्तिशाली बनाए रखा और उसके बल पर उसने अंडमान निकोबार, पेंगू, वर्मा का अराकान आदि क्षेत्रों को जीता।

उसने जावा, सुमात्रा, मलाया आदि द्वीपों तक अपने सैनिक भेजे।

राजेंद्र प्रथम के पूर्वी द्वीप समूह के विजय अभियान से भारतीय संस्कृति का प्रसार काफी अधिक बढ़ गया। इसके अलावा व्यापार एवं उद्योगों की उन्नति हुई। अब भारतीय व्यापार हिंद चीन तक विस्तृत हुआ।

राजेंद्र प्रथम शैव धर्म का अनुयाई था और उसने अनेक मंदिरों का निर्माण कराया इसके अलावा भवन, नगर व झीलों का भी निर्माण कराया गया।

राजाधिराज (1042-52 ईसवी तक):-

राजेंद्र प्रथम के पश्चात राजाधिराज (1042-52 ईसवी तक) शासक बना और उसने 10 वर्षों तक शासन किया।

उसके समय में चेर, पांड्य और लंका के शासकों ने विद्रोह किया परंतु उन सब को दबा दिया गया। बाद में उसका युद्ध चालुक्य राजा सोमेश्वर से हुआ इसमें वह युद्ध करता हुआ मारा गया।  

वीर राजेंद्र (1052 से 1063 ईसवी तक):-

उसका उत्तराधिकारी वीर राजेंद्र हुआ। तिरुकोईलूर अभिलेख के अनुसार उसने राजेंद्र प्रथम की मृत्यु का बदला लेने के लिए चालुक्य राज्य पर आक्रमण किया और कोल्हापुर तक पहुंच गया।  

वीर राजेंद्र ने 1052 से 1063 ईसवी तक शासन किया।

अधिराजेंद्र:-

उसके बाद अधिराजेंद्र शासक हुआ। उसका हमेशा केरल, पांड्य और चालुक्य शासकों के साथ संघर्ष चलता रहता था। उसने चालुक्यों को नर्मदा नदी के दक्षिण में अधिकार नहीं करने दिया 1070 ईसवी में अधिराजेंद्र की एक युद्ध के दौरान मृत्यु हुई।

राजेंद्र द्वितीय (1070-1118 ईसवी):-

अधिराजेंद्र के पश्चात राजेंद्र द्वितीय गद्दी पर बैठा।राजेंद्र द्वितीय का संबंध चोल और चालुक्य वंश से भी था। इसका कारण था कि वह राजेंद्र प्रथम की पुत्री का पुत्र था और वहीं पर रहता था । राजेंद्र प्रथम ने उसे गोद लिया था। वह अधिराजेंद्र की मृत्यु के पश्चात शासक बना।

शासक बनने के पश्चात राजेंद्र द्वितीय ने वेंगी के चालुक्य सप्तम विजयादित्य को जो उसका चाचा था हराया और अपने पुत्र मुम्मुडि चोल को वहां का शासक नियुक्त किया।

उसके युद्ध कल्याणी के चालुक्य शासक,कलिंग के चोड, गंग और परमार शासकों से भी हुए।उसने लंबे समय तक शासन किया उस पर शासन लगभग 48 वर्षों तक था और उसने कुलोत्तुंग की उपाधि धारण की थी।उसकी मृत्यु 1118 ईसवी में हुई।

वह चोल वंश का अंतिम प्रतापी शासक था उसने अनेक युद्ध लड़े।वह जनता की सुख-सुविधाओं का विशेष ध्यान रखता था।वह अन्य शासकों की भांति शैव धर्म का कट्टर समर्थक था उसके समय में वैष्णव और शैव धर्मों में विरोध प्रारंभ हो गया था।

राजेंद्र द्वितीय के पश्चात चोल वंश के शासकों का कोई उल्लेखनीय इतिहास नहीं है परंतु इस वंश का अंतिम स्वतंत्र शासक राजेंद्र तृतीय था जो 1267 ईसवी तक शासन करता रहा।

पांड्य राजा सुंदर पांड्य ने चोल राज्य पर आक्रमण करके इसे अपने अधिकार में कर लिया परंतु फिर भी  स्थानीय राजा के रूप में ये शासन करते रहे परंतु 1310- 11 ईसवी में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने यहां पर आक्रमण करके चोल वंश का शासन सदा के लिए अंत कर दिया।

चोल कालीन शासन व्यवस्था:-

केंद्रीय शासन:-

राजा  राज्य का सबसे बड़ा अधिकारी होता था।उसके सहायता के लिए अनेक मंत्री होते थे।

राजा की आज्ञाओं को लिपिबद्ध करने का उत्तरदायित्व तिरुवक्य केल्वी नामक मंत्री पर था जो उसके निजी मंत्री होते थे।

औलेनायक और पेरूंदरम:-

राजकीय सचिव और मंत्री की कोटि के अधिकारी होते थे। इनका कार्य राजकीय आज्ञाओं को प्रेषित करना होता था। इनका लेखा-जोखा राजकीय रजिस्टर में रखा जाता था।

प्रांतीय शासन:-

राज्य को राष्ट्रम कहा जाता था तथा यह कई प्रांतों जिसे मंडलम कहा जाता था में बंटे हुए थे।

मंडलम, कोट्टम( कमिश्नरी)में और कोट्टम, नाडु (जिला) में बंटे हुए थे। नाडु, कुर्रम (ग्राम सभा) में बंटे हुए थे।

मंडलम का अधिकारी राजा का विश्वासपात्र राज कुमार होता था इसके अलावा विभिन्न प्रांतों को जीत कर उन्हें मंडलम में परिवर्तित कर दिया जाता था जिसका अधिकारी उस पराजित देश के राज परिवार का कोई सदस्य होता था।

स्थानीय शासन:-

स्थानीय शासन को चोल राजाओं ने बहुत ही अच्छी तरीके से तैयार किया था और इन्हें स्वशासन की ओर अग्रसर किया था। चोल शासक राजराज प्रथम के अभिलेखों से यह पता चलता है कि उस समय पंचायत प्रथा काफी अधिक विकसित थी।

मंडल और नगरों की अपनी सभाएं होती थी जो महत्वपूर्ण प्रश्नों पर निर्णय देती थी।

व्यापारियों की भी सभा होती थी जो विभिन्न उद्योगों और श्रेणियों के लिए स्वयं अपने नियम बना लेते थे। सरकार भी इसे स्वीकार करती थी।

जिले(नाडु) की सभा को नाट्टर और नगर की श्रेणियों को नगरतार कहा जाता था।

ग्रामीण शासन:-

गांव को कुर्रम कहा जाता था।ग्रामीण शासन अत्यंत विकसित अवस्था में था।

ग्राम सभा के सदस्यों को पेरुमक्कल कहा जाता था। इनका निर्वाचन गांव के निवासियों द्वारा 1 वर्ष के लिए किया जाता था।

निर्वाचन में शामिल होने के लिए योग्यता का निर्धारण किया जाता था। इसके अनुसार वही व्यक्ति निर्वाचन में शामिल होने के योग्य होता था जिस पर किसी भी प्रकार की आपराधिक कार्रवाई न की गई हो।

निर्वाचन के लिए आयु शिक्षा और सामाजिक स्थिति भी देखी जाती थी।

निर्वाचन की व्यवस्था का संचालन पुरोहित के द्वारा होता था। निर्वाचन के लिए विभिन्न उम्मीदवारों की पर्चियां एक साथ मिलाकर रख दी जाती थीं और एक बच्चे के द्वारा उनमें से एक पर्ची निकाल कर दी जाती थी। जिस नाम की पर्ची निकलती थी पुरोहित के द्वारा उस व्यक्ति को निर्वाचित घोषित किया जाता था। 

ग्रामसभा कई समितियों में बंटी होती थी जिन्हें वारियम कहा जाता था। इन्हें पूर्णतया आंतरिक स्वतंत्रता प्राप्त थी।

ग्राम सभा का उत्तरदायित्व अधिक था उसका कार्य रास्तों का निर्माण भूमि का प्रबंधन, सिंचाई की व्यवस्था, वनों की देखभाल, भूमि कर की वसूली, छोटे अपराधों के लिए दंड निर्धारण आदि था।

सरकार के अधिकारी ग्राम सभा के कार्य का निरीक्षण करते थे यदि उसमें किसी प्रकार की अनियमितता पाई जाती थी तो उसके लिए कठोर दंड की व्यवस्था थी।

ग्राम सभा को गांव की भूमि पर पूरा अधिकार था। वह धार्मिक कार्यों हेतु भूमि बिक्री कर सकती थी। ग्राम सभा धार्मिक मठों की सहायता से तमिल व संस्कृत भाषा की शिक्षा का प्रबंध करती थी।

राज्य की आय के साधन:-

भूमि कर उपज का छठा भाग था यह नगद व अनाज दोनों के रूप में वसूला जाता था। इसके अतिरिक्त चुंगी, न्यायालयों में दिया गया आर्थिक दंड, सिंचाई नमक कर आदि प्रमुख थे।

कुछ प्रमुख कर इस प्रकार हैं:-

सेरिट्टयी (व्यापार कर), उप्पायम (नमक कर), ओलक्कुनीरपाट्टम (सिंचाई कर), तरि इरयी(करघा कर)  अंगाडिपट्टम (बाजार कर)।

अनाज के माप की इकाई कलम थी इसका मान तीन मन के बराबर था।

चोल राज्य में सोने का सिक्का कासु था जो एक औंस के छठवें भाग के बराबर होता था।चोल राज्य में चांदी का सिक्का प्रचलित नहीं था।

वस्तुओं को खरीदने के लिए कौड़ियों का उपयोग किया जाता था।

सिंचाई के लिए कावेरी नदी से अनेक नहरें निकाली गई थीं।

सैन्य विभाग:-

पैदल, अश्वारोही(कुदीरैच्चेवगर), हाथी(कुंजिरमल्लर), धनुर्धर (विल्लिगड), जंगल में युद्ध करने वाले जंगली योद्धा।

सैनिकों की छावनियों को कडगम कहा जाता था।

ब्राह्मण सेनापतियों को ब्रह्माधिराज कहा जाता था।

चोल सैनिक युद्ध कला में अत्यंत कुशल थे।

चोल कालीन कला:-

साहित्य:-

शासनकाल में विभिन्न कलाओं की उन्नति हुई तमिल साहित्य को प्रोत्साहित किया तथा संस्कृत ग्रंथों की रचना की गई ये मुख्य तया धार्मिक ग्रंथ थे।

उनके समय के प्रमुख ग्रंथ रामानुज द्वारा रचित वेदांतसार, वेदांत दीप एवं ब्रह्म सूत्र, वेंकट माधव द्वारा रचित रिगर्थ दीपिका, हरिदत्ताचार्य रचित श्रुति माला, श्रीकांत रचित ब्रह्मा मीमांसा भाष्य आदि ।

तमिल ग्रंथों में जय गोंडार द्वारा लिखित कलिंगत्तूपरणि कला, शैक्किमर द्वारा तिरुतोंडार पुराण अथवा पेरियपुराण का अनुवाद, शैक्किलार द्वारा सुंदर मूर्ति एवं नांबिअंडार  के सिद्धांतों की व्याख्या की गई।

जैन कवि तिरुतक्कदेवर ने जीवक चिंतामणि की रचना की, अमित सागर द्वारा  याप्प रूंगलम नामक तमिल व्याकरण ग्रंथ लिखा गया।

भवन निर्माण एवं मूर्तिकला:-

चोल मंदिरों की प्रमुख विशेषता इनका विस्तृत आंगन है तथा यह वर्गाकार प्रकार के बनाए जाते हैं और उनका गर्भगृह वृत्ताकार है तथा यह बहुमंजिला भवन है। इसके ऊपर गुंबदाकार शिखर है। गर्भ गृह की दीवारों पर मूर्तियां अंकित हैं।
बाद के समय में द्रविड़ शैली की प्रधानता हो गई जिनमें गोपुरम(मुख्य द्वार) ऊंचे ऊंचे बनाए जाने लगे।

प्रमुख मंदिर:-

विजयालय द्वारा नार्त्तामलाई में बनवाया गया चोलेश्वर मंदिर।आदित्य प्रथम का तिरुक्कटले में सुंदेश्वर मंदिर(द्रविड़ शैली)।परात्तक प्रथम द्वारा निर्मित श्रीनिवास नल्लुर का कोरंगनाथ मंदिर।

तंजौर में निर्मित राजराजेश्वर मंदिर:-

इस मंदिर की ऊंचाई 120 फीट व आधार 82 फीट है। इस मंदिर में 13 तल है तथा इसका शीर्ष 25 फीट ऊंचा है जो एक पत्थर का बना है। इसका वजन 80 टन है।

तंजोर में एक अन्य मंदिर सुब्रमण्यम का है।

राजेंद्र प्रथम की नई राजधानी गंगैकोंडचोलपुरम में कई भवन और मंदिर हैं।

यहां का विशाल मंदिर  आठ मंजिला पिरामिडाकर है तथा यह 100 वर्ग फीट के आधार पर बना है।यह मंदिर 110 फीट चौड़ा 340 फिट लंबा है तथा इसकी ऊंचाई  86 फीट है।इस पर 175 ×95 के आकार का आयताकार महा मंडप है। इसमें मंडप (गर्भ गृह) को जोड़ने वाला गलियारा है जिसकी छत सपाट है।

मूर्तिकला:-

तिरूमनरगकुलम से प्राप्त नटराज की कांस्य प्रतिमा, तिरुवलंकडू से प्राप्त अर्धनारीश्वर शिव की मूर्ति, कालिया नाग पर नृत्य करते श्री कृष्ण की प्रतिमा लक्ष्मी, ब्रह्मा, विष्णु आदि की मूर्तियां उल्लेखनीय है।

धार्मिक जीवन:-

चोल राजा मुख्यतः शैव धर्म के अनुयाई थे परंतु यह धार्मिक रूप से पूर्णतया उदार थे इन्होंने वैष्णव, बौद्ध और जैन संप्रदाय के धर्म स्थलों में भी दान किया।

राजराज प्रथम ने विष्णु मंदिर बनवाया और बौद्ध विहारों को भी दान दिया। केवल कुलोत्तुंग नामक चोल राजा अपवाद है जोकि धार्मिक रूप से कुछ असहिष्णु था। उसके कारण महान संत रामानुज को चोल राज्य छोड़कर होयसल राज्य में जाना पड़ा परंतु उसके पुत्र विक्रम ने उदारता का परिचय दिया और रामानुज को वापस बुला लिया।

लेखों में चोल राजाओं के वैदिक कर्मकांड  का उल्लेख नहीं है। केवल राजाधिराज के लेखों में अश्वमेध का उल्लेख है।

लोग दान, व्रत, उपवास, तीर्थ यात्रा, पूजा आदि नियम पूर्वक करते थे।

इसे भी देखें:-

राष्ट्रकूट वंश

चेर राजवंश

पांड्य वंश

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