गुप्त वंश का इतिहास

गुप्त साम्राज्य

गुप्त वंश का उदय 275 ईसवी में हुआ। गुप्त वंश का प्रथम शासक श्री गुप्त था।

समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में श्री गुप्त का नाम उसके आदि पूर्वज के रूप में प्राप्त होता है। श्री गुप्त सामंत की स्थिति में था। प्रयाग प्रशस्ति में श्री गुप्त को महाराजा की उपाधि से विभूषित किया गया जिससे अनुमान लगाया जाता है की वह छोटे भाग पर राज्य करता था।

गुप्त वंश का इतिहास जानने के स्रोत:-

इस वंश का इतिहास जानने के अनेक स्रोत हैं जिनमें प्रमुख हैं –

प्रयाग प्रशस्ति,चीनी यात्री फाह्यान का यात्रा विवरण,शूद्रक कृत मृच्छकटिकम, विशाखदत्त कृत देवी चंद्रगुप्त ,महरौली का लौह स्तंभ,स्कंदगुप्त का भीतरी स्तंभ लेख,गुप्त कालीन सिक्के आदि।

गुप्त वंश के शासकों का मूल निवास:-

गुप्त शासकों के मूल निवास स्थान के संबंध में विद्वानों में मतभेद है
कुछ विद्वान गुप्तों को बंगाली बताते हैं जबकि पुराणों में प्रयाग, साकेत का शासक बताया गया है। समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति से भी इस बात का अंदाजा लगता है।

गुप्त शासकों का वंश परिचय:-

इतिहासकारों ने गुप्त शासकों को अपने अपने हिसाब से जातियों में बांटा है 

जाट होने का मत:-

काशी प्रसाद जायसवाल गुप्त शासकों को जाट कहते हैं इसके लिए उन्होंने कौमुदी महोत्सव का वर्णन दिया है परन्तु कौमुदी महोत्सव की ऐतिहासिकता संदिग्ध है।

वैश्य मत:-


गुप्त शासकों को वैश्य मानने वालों में एलन नामक इतिहासकार प्रमुख हैं। उन्होंने इसके लिए मनुस्मृति का सहारा लिया है जिसमें ब्राह्मण के लिए शर्मा, क्षत्रिय के लिए वर्मा, वैश्य के लिए गुप्त और शूद्र के लिए दास की उपाधि निर्धारित की गई है परंतु गुप्त शासकों का गुप्त नाम जातिसूचक ना होकर उपाधि सूचक है।

क्षत्रिय मत:-


गुप्त शासकों को छत्रिय मानने वाले इतिहासकारों में वासुदेव उपाध्याय,रमेश चंद्र मजूमदार आदि हैं। इसके लिए उन्होंने शिवगुप्त के शीरपुर प्रशस्ति का उल्लेख किया है इसमें गुप्त शासकों को क्षत्रिय बताया गया है। इसके अलावा गुप्त शासकों ने लिच्छवी क्षत्रियों में अपने पुत्रों के विवाह किए।

गुप्त वंश के शासकों ने अनेक वर्णों में विवाह किए और उच्च वर्ग के वर व निम्न वर्ग की कन्या के साथ अनुलोम विवाह भारतीय समाज में प्रचलित था।

ब्राह्मण मत:-

दशरथ शर्मा और कुछ अन्य लेखक गुप्त शासकों को ब्राह्मण कहते हैं इसके लिए सबसे ठोस प्रमाण चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्ता के पुणे ताम्रपत्र को बताया गया है इसमें वह अपने आप को धारण गोत्र का बताती है।

चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्ता का विवाह वाकाटक नरेश रूद्र सेन द्वितीय से हुआ था जोकि विष्णु वृद्धि गोत्र का था।बौद्ध लेखक परमार्थ के अनुसार बालादित्य ने अपनी बहन का विवाह वसुरात नामक ब्राह्मण के साथ किया था।परंतु वैवाहिक संबंध ही किसी के गोत्र निर्धारण का आधार नहीं हो सकते।


यह कहना थोड़ा कठिन है की गुप्त शासक किस वंश से संबंधित थे परंतु उस काल में ब्राह्मण वंश का अभ्युदय चल रहा था इसलिए उनके इसी वंश के होने की अधिक संभावना है।


श्री गुप्त के पश्चात घटोत्कच गुप्त वंश का दूसरा शासक हुआ उसने महाराजा की उपाधि धारण की थी।

चंद्रगुप्त प्रथम:-

चंद्रगुप्त प्रथम(राजदंपती) गुप्त वंश

गुप्त वंश का पहला वास्तविक शासक चंद्रगुप्त प्रथम था। उसका राज्य पूर्णतया स्वतंत्र था और उसने अपने राज्य का विस्तार भी किया। चंद्रगुप्त प्रथम का राज्याभिषेक 319 ईसा पूर्व में हुआ।
राज्य प्रयाग से लेकर कौशल तक तथा बिहार के कुछ भागों तक विस्तृत था।


चंद्रगुप्त प्रथम के जीवन की महत्वपूर्ण घटना लिच्छवियों से वैवाहिक संबंध था इससे उसकी शक्ति काफी बढ़ गई।

लिच्छवी राजकुमारी कुमार देवी से चंद्रगुप्त प्रथम का विवाह हुआ था चंद्रगुप्त के राजा रानी प्रकार की स्वर्ण मुद्रा से इस बात का पता चलता है जिसमें मुद्रा की एक तरफ चंद्रगुप्त और कुमार देवी का चित्र अंकित है तथा दूसरी तरफ लिच्छवयाः लिखा हुआ है।

उसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी और अपने राज्यारोहण की  तिथि से गुप्त संवत प्रारंभ किया ।
चंद्रगुप्त प्रथम की मृत्यु 335 ईसवी में हुई।उसके पश्चात उसका पुत्र समुद्रगुप्त सिंहासन पर बैठा।

समुद्रगुप्त:-

समुद्रगुप्त एक महान विजेता,कुशल शासन प्रबंधक और कला व संस्कृति का पोषक था।

प्रारंभिक जीवन:-


प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त अपने आप को लिच्छवी दौहित्र कहता है इससे यह पता लगता है कि समुद्रगुप्त चंद्रगुप्त और लिच्छवी राजकुमारी कुमार देवी का पुत्र था।
प्रयाग प्रशस्ति जो कि संस्कृत भाषा में लिखा गया है उसमें अपने जीवन की घटनाओं के बारे में वर्णन है। प्रयाग प्रशस्ति की रचना हरिषेण ने की थी। यह प्रशस्ति कौशांबी में स्थित अशोक स्तंभ के ऊपर ही अंकित की गई है। 

समुद्रगुप्त बाल्यावस्था से ही अत्यंत होनहार था उसके पिता ने उसकी योग्यता से प्रभावित होकर अपने अन्य पुत्रों की अपेक्षा उसे वरीयता दिया तथा राजा घोषित किया इसका वर्णन प्रयाग प्रशस्ति में है। 

समुद्रगुप्त की माता कुमार देवी लिच्छवी राजकुमारी थी। राजा बनने के पश्चात समुद्रगुप्त ने साम्राज्य का विस्तार प्रारंभ किया। उस समय भारत के उत्तरी भाग में नागवंशी राजाओं केेे अनेक राज्य स्थापित हो गए थे नागों के राज्य मथुरा से लेकर बिहार के पश्चिमी भाग तक स्थापित थे। इसकेे अतिरिक्त भार शिवों केे राज्य भी थे जिन्होंने कुषाण साम्राज्य को हटाकर अपने राज्य स्थापित किए थे कुछ विद्वान इन्हें नागों की ही एक शाखाा मानते हैं। इसके अलावा मौखारी, मग और कोटकुल राजवंशों का राज था। अवंती प्रांत में शकों का शासन अवशेष रूप में बचा हुआ था।

दक्षिण की दिशा में भी अनेक राजवंश राज्य कर रहे और जिनमें विंध्याचल के पास विंध्य शक्ति का राज्य गोदावरी नदी के पास इक्ष्वाकु वंशियों का राज्य और दक्षिण  में चोल, पांड्य आदि राज्य थे तथा सुदूर दक्षिण में लंका का राज्य था।

समुद्रगुप्त की दिग्विजय:-

समुद्रगुप्त ने पहले पहल पाटलिपुत्र राज्य पर आक्रमण किया और उस पर विजय प्राप्त करने के पश्चात दिग्विजय की योजना प्रारंभ की गई। प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार समुद्रगुप्त ने अच्युत,नागसेन, गणपति और कोटकुल राज्य पर विजय प्राप्त की थी।

काशी प्रसाद जायसवाल के अनुसार कोटकुल पाटलिपुत्र का राजवंश था।

आर्यावर्त के पराजित राजा:-

  1. अच्युत (उत्तर पांचाल के शासक)
  2. नागसेन (पद्मावती के नागवंश)
  3. गणपति (मथुरा के नाग राजवंश)
  4. रुद्रदेव (कौशांबी का रूद्रदेव अथवा वाकाटक नरेश रूद्र सेन)
  5. मतिल (नागवंशी शासक)
  6. नागदत्त  (लाहौर के आसपास का शासक)
  7. चंद्रवर्म्य (पूर्वी पंजाब का शासक अथवा बंगाल का शासक )
  8. नंदि (नागवंशी राजा)
  9. बलवर्मन (मगध का मौखरी राजा)

रैपसन नामक विद्वान के अनुसार उपरोक्त नौ राजा विष्णु पुराण में वर्णित नौ नागवंशी राजा थे।

कुछ विद्वानों का यह भी अनुमान है कि समुद्रगुप्त के विरुद्ध इन नागवंशी राजाओं ने संघ बनाकर युद्ध किया था और समुद्रगुप्त ने उनको पराजित किया।

दक्षिण के राज्य:-

इन राज्यों की पहचान में विद्वानों में मतभेद है।

  1. पिष्टपुर (गोदावरी जिले के पीठापुरम पर)
  2. कोट्टूर का स्वामीदत्त ( पिष्टपुर के पास कोथूर नामक स्थान पर)
  3.  कौशल के महेंद्र (मध्य प्रदेश के दक्षिण पूर्वी भाग)  
  4. महाकांतर का शासक व्याघ्र राज (अभिलेख की प्राप्ति स्थान के आधार पर बुंदेलखंड का नचना कुठार)
  5. कौशल का मंटराज (केरल अथवा दक्षिण का कोराड गांव)
  6. एरंड पल्ल(विशाखापट्टनम का एंडिपल्ली)
  7. कांची (आधुनिक कांचीपुरम था यहां का शासन पल्लव वंशीय विष्णु गोप था)
  8. अवमुक्त का नीलराज (गोदावरी नदी के तट पर स्थित राज्य शासक नीलराज था)
  9. देव राष्ट्र का कुबेर(महाराष्ट्र में स्थित) 
  10. वेंगी का हस्ती वर्मन (गोदावरी जिले के पेडुवेंगी नामक स्थान)
  11. पालक्क का उग्रसेन (आधुनिक नेल्लोर जिले के पलक्कड नामक स्थान)
  12. कुश स्थल का राजा धनञ्जय

सम्राट समुद्रगुप्त ने उत्तर के राज्यों के साथ असुर विजयी नीति(किसी राज्य को जीतकर उसे अपने राज्य में मिला लेना ) का पालन किया जबकि दक्षिण के राज्यों के साथ धर्म विजयी नीति(जीतने के पश्चात अपनी अधीनता स्वीकार करा कर राज्य लौटा देना) पालन किया।

इतिहासकार वी. ए. स्मिथ के अनुसार समुद्रगुप्त ने संपूर्ण दक्षिणापथ को जीता था इसलिए उन्होंने उसे भारत का नेपोलियन कहा।

समुद्रगुप्त की अन्य विजयें:-

इन राज्यों के अलावा समुद्रगुप्त ने विंध्य पर्वत की जंगली जातियों को भी जीता था तथा उससे सीमावर्ती राज्य भयभीत रहते थे और उसे सदैव उपहार,कर,उपस्थिति व पालन के जरिए  संतुष्ट रखते थे।

पश्चिमोत्तर भारत के कुषाण शासक और अवंति के शक शासक अत्यंत दुर्बल हो गए थे। सिंहल द्वीप और दक्षिण पयोधि (हिंद महासागर) के अन्य देशों ने समुद्रगुप्त से संधि कर ली थी वे अपने राज्यों में गरुड़ के चित्र से अंकित उसकी मुद्रा का प्रयोग करते थे।

अपनी विजयों के उपलक्ष में समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया इसके उपलक्ष्य में सोने का सिक्का चलाया जो अत्यंत सुंदर दिखाई देते हैं उनकी एक तरफ अश्वमेध यज्ञ के घोड़े की मूर्ति का चित्र अंकित है और दूसरी ओर चंवर लिए राज महिषी का चित्र उत्कीर्ण है व अश्वमेध पराक्रमः लिखा है।

कुशल सेनानायक के अतिरिक्त वह संगीत और कला का प्रेमी था। समुद्रगुप्त स्वयं कविता करता था तथा उसने कविराज की उपाधि धारण की थी उसने वीणा बजाते हुए अपने चित्र को अपने सिक्कों पर अंकित कराया है। 

समुद्रगुप्त वैदिक धर्मावलंबी था और वह भगवान विष्णु का उपासक था परंतु अन्य धर्मों का समान रूप से आदर करता था। 375 ईसवी में समुद्रगुप्त की मृत्यु हुई। उसके पश्चात उसका पुत्र कुमारगुप्त कुछ समय के लिए शासक बना और अंत में उसका छोटा पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय जिसे विक्रमादित्य भी कहा जाता है शासक बना।

राम गुप्त:-

समुद्रगुप्त के पश्चात उसका बड़ा लड़का राम गुप्त सिंहासन पर बैठा इसके विषय में जानकारी देने का मुख्य स्रोत देवीचंद्रगुप्तम नामक नाटक है जिसे विशाखदत्त ने लिखा था। राम गुप्त अपने पिता के विपरीत एक दुर्बल और असावधान शासक था। शकों ने गिरि दुर्ग नामक स्थान पर उसे घेर लिया था। इस परिस्थिति से विवश होकर राम गुप्त ने शक शासक  के साथ संधि की जिसके अनुसार उसे अपनी रानी ध्रुव देवी को शकों को समर्पित करना था।

अंत में उसके छोटे भाई चंद्रगुप्त ने ध्रुव देवी के वेश में अपने सैनिकों के साथ छावनी में प्रवेश किया और शक राजा को मार डाला। अंत में षड्यंत्र द्वारा राम गुप्त की मृत्यु हुई और चंद्र गुप्त शासक बना और उसने ध्रुव देवी से विवाह कर लिया। बाणभट्ट के हर्ष चरित्र में राम गुप्त का वर्णन है।

चन्द्रगुप्त द्वितीय:-

चंद्रगुप्त द्वितीय (धनुर्धर) गुप्त वंश

चंद्रगुप्त द्वितीय की माता का नाम दत्तदेवी था। चंद्रगुप्त ने अनेक उपाधियां धारण की थी जिनमें उसकी सबसे प्रमुख उपाधि विक्रमादित्य थी।

जिन राज्यों को समुद्र गुप्त ने अपने अधीन किया था वे उससे स्वतंत्र होने की चेष्टा कर रहे थे और विदेशी मुख्यतया शक शासक उसके राज्य पर आक्रमण करने की ताक में बैठे थे।

इन परिस्थितियों में चंद्रगुप्त ने दिग्विजय आरंभ किया।
सबसे पहले उसने मध्य भारत के गणराज्यों पर आक्रमण किया और उनको अपने राज्य में मिलाया।

इसके पश्चात उसने अवंती प्रांत के शक क्षत्रप रूद्रसिंह तृतीय को पराजित किया और अवंती को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया इसके पश्चात शकों का कोई भी वर्णन नहीं मिलता है इस उपलक्ष में चंद्रगुप्त ने मालवा में चांदी के सिक्के चलाये।

इसके पश्चात चंद्रगुप्त ने पूरब के प्रत्यंत राज्यों को परास्त किया जो उसके विरुद्ध संगठन बना रहे थे जिनमें कामरूप, दवाक आदि के राज्य थे।

पूर्व के राज्यों को पराजित करने के पश्चात चंद्रगुप्त द्वितीय ने पश्चिमोत्तर भारत की ओर प्रस्थान किया वहां पहुंचकर उसने कुषाण साम्राज्य पर आक्रमण करके उन्हें पराजित किया। महरौली के लौह स्तंभ पर उत्कीर्ण लेख के अनुसार चंद्रगुप्त ने सिंधु नदी की सातों सहायक नदियों को पार करके वाह्लीकों को हराया। इससे यह अर्थ निकलता है कि उसने हिंदुकुश तक अपना विजय अभियान किया था।

महरौली स्तंभ लेख के अनुसार चंद्रगुप्त ने दक्षिण के राज्यों से पुनः अपना आधिपत्य स्वीकार कराया।

वैवाहिक संबंध:-

उसने अनेक शक्तिशाली राजवंशों में वैवाहिक संबंध स्थापित किए और उन्हें अपना मित्र बना लिया।

उसने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्ता का विवाह शक्तिशाली वाकाटक राज्य के राजा रूद्र सेन द्वितीय के साथ किया। उसने स्वयं नाग सामंत कुबेर नाग की लड़की कुबेर नागा से विवाह किया तथा कर्नाटक के कदंब वंशी राज्य में भी वैवाहिक संबंध स्थापित किए गए।

चंद्रगुप्त के समय में राज्य की अभूतपूर्व उन्नति हुई उसने बहुतायत में सोने के सिक्के चलाएं उसके दरबार में विभिन्न क्षेत्र के विद्वानों की एक टोली रहती थी जिन्हे नवरत्न कहा जाता था। उस समय में साहित्य एवं कला की अभूतपूर्व उन्नति हुई। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में चीनी यात्री फाह्यान भारत आया था वह कुछ समय तक चंद्रगुप्त द्वितीय के दरबार में रहा उसने गुप्त साम्राज्य की बहुत प्रशंसा की है।

चंद्रगुप्त की मृत्यु 414 ईसवी में हुई। उसकी मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र कुमारगुप्त सिंहासन पर बैठा।

कुमारगुप्त प्रथम:-

कुमारगुप्त ने उत्तराधिकार में चंद्रगुप्त द्वितीय से एक बड़ा साम्राज्य प्राप्त किया था और उसने उसे अक्षुण्ण रखा। 

ने अश्वमेध शैली के सोने के सिक्के चलवाए थे  जिसके एक तरफ खंभे से बंधा हुआ अश्वमेध का घोड़ा और दूसरी ओर हाथ में चंवर लिए राजमहिषी का चित्र अंकित है। कुमारगुप्त के कुछ सिक्कों पर घोड़े के नीचे अश्वमेध लिखा है और दूसरी तरफ अश्वमेध महेंद्र लिखा हुआ है

पुष्यमित्रों का विद्रोह :-

कुमारगुप्त के शासन के अंतिम समय में पुष्यमित्र वंश के लोगों ने नर्मदा नदी के किनारे विद्रोह किया परंतु यह विद्रोह दबा दिया गया।

हूणों का आक्रमण:-

उसी समय पश्चिमोत्तर भारत पर हूणों का जबरदस्त आक्रमण हुआ और संभवतया उन्होंने कुछ स्थानों पर अधिकार भी स्थापित कर लिया। कुमारगुप्त ने अपने पुत्र स्कंद गुप्त को उनका सामना करने के लिए भेजा। स्कंद गुप्त ने अत्यंत साहस और वीरता का परिचय दिया तथा हूणों के साथ उसका भयंकर युद्ध हुआ अंत में वह हूणों को परास्त करने में और मार भगाने में सफल हुआ।

इसके अतिरिक्त कुमारगुप्त का शासन अपेक्षाकृत शांत रहा उसके समय में विभिन्न कलाओं की उन्नति हुई जिसमें वास्तु कला, मूर्तिकला, चित्रकला, साहित्य आदि हैं।

कुमारगुप्त की मृत्यु 455 ईसवी में हुई थी।

स्कन्द गुप्त:-

स्कंदगुप्त का चांदी का सिक्के

455 ईसवी में स्कंद गुप्त सिंहासन पर बैठा गिरनार के लेख में इसका वर्णन है।
कुमारगुप्त के समय में ही उसने अपनी योग्यता सिद्ध कर दी थी। स्कंद गुप्त ने कुमारगुप्त के आदेश पर पुष्यमित्रों के विद्रोह को दबाया था और बर्बर हूणों से कठिन युद्ध करके साम्राज्य की सुरक्षा की थी।

स्कंद गुप्त के भीतरी स्तंभ लेख में राज्य पर आक्रमण का वर्णन है।

हूणों का लगातार आक्रमण:-

हूण लगातार हिंदू कुश के आसपास इकट्ठे हो रहे थे और समय-समय पर उनके भारत पर आक्रमण प्रारंभ हो गए थे। स्कंद गुप्त ने अत्यंत जागरूकता का परिचय दिया लगातार हूणों से युद्ध किया। स्कंद गुप्त ने पश्चिमोत्तर सीमा के सभी प्रांतों में गोप्ता नामक सैैनिक अधिकारी नियुक्त किए। स्कंद गुप्त ने देश की रक्षा सफलतापूर्वक किया । स्कंद गुप्त की मृत्यु 467 ईसवी में हुई।

लोक कल्याणकारी कार्य:-

चंद्रगुप्त मौर्य के समय में उसके प्रांतपति पुष्यगुप्त वैैैश्य द्वारा बनवाई गई सुदर्शन झील से एक नहर अशोक के प्रांतीय शासक तुषास्प ने निकलवाई थी। उसका बांध टूटने की वजह से लोगों को बहुत कठिनाई हो रही थी। शक शासक रुद्रदामन ने  काफी धन खर्च करके बांध का जीर्णोद्धार कराया था।

स्कन्दगुप्त के समय में अतिवृष्टि होने से झील का बांध पुनः टूट गया। स्कन्दगुप्त के आदेश पर सौराष्ट्र के प्रांतीय शासन पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित ने काफी अधिक धन व्यय करके इसका जीर्णोद्धार कराया।

सुदर्शन झील के सफल जीर्णोद्धार के उपलक्ष में चक्रभृत( विष्णु) मंदिर का निर्माण कराया गया इसका वर्णन समुद्रगुप्त के भीतरी स्थित अभिलेख में दिया गया है।

स्कंद गुप्त के पश्चात गुप्त साम्राज्य का धीरे धीरे हरास होने लगा। इसके कई कारण थे जिनमें प्रमुख कारण बाहरी आक्रमण और आंतरिक दुर्बलता था।

बाहरी आक्रमणों ने गुप्त शासन व्यवस्था को आघात पहुंचाना प्रारंभ कर दिया। उन परिस्थितियों में अत्यंत योग्य एवं जागरूक शासक ही राज्य की सुरक्षा में समर्थ हो सकता था जिसका  बाद के राजाओं में अभाव दिखाई देता है।

उत्तर गुप्त कालीन राजाओं का परिचय निम्न प्रकार है:-

पुरु गुप्त:-

पुरु गुप्त स्कंद गुप्त का सौतेला भाई था स्कंद गुप्त की मृत्यु के पश्चात वह सिंहासन पर बैठा उसका शासन अधिक समय तक नहीं चला। 

नरसिंह गुप्त बालादित्य:-

उसके विषय में विशेष जानकारी नहीं प्राप्त होती है । इसने अपने नाम से सिक्के चलाए थे इन्हीं से इसके विषय में जानकारी प्राप्त होती है।

कुमारगुप्त द्वितीय:-

इसके पश्चात कुमारगुप्त द्वितीय शासक बना सारनाथ मैं स्थित बुद्ध मूर्तियों पर लेख मिले हैं इसमें उसका नाम दिया गया है।

बुद्ध गुप्त:-

बुद्ध गुप्त के प्राप्त सोने चांदी के सिक्कों पर 175 ईसवी अंकित है जो कि गुप्त संवत है गणना करने के पश्चात उसका समय 494-95 ईसवी के आसपास ठहरता है। 

भानुगुप्त बालादित्य:-

बुद्ध गुप्त के पश्चात भानु गुप्त सिंहासन पर बैठा। उसने बालादित्य की उपाधि धारण की थी। एरण से एक लेख मिला हुआ है जिसके अनुसार लगभग 510-511 ईसवी में गोपराज भानु गुप्त के साथ एरण गया था और किसी युद्ध में मारा गया परंतु इस युद्ध में भानु गुप्त को विजय प्राप्त हुई थी और उसने गोप राज की याद में एक स्मारक बनवाया था।

कुमारगुप्त तृतीय:-

भीतरी नामक स्थान पर सोने की मोहर प्राप्त हुई है जिसमें धनुर्धर प्रकार के सिक्के मिले हैं जो कुमारगुप्त तृतीय के बताए गए हैं।

विष्णुगुप्त:-

कोलकाता के कालीघाट से कुछ सिक्के प्राप्त हुए हैं जो सोने के धनुर्धर भांति के हैं जिनमें दाहिने हाथ के नीचे विष्णु और राजा के पैरों के बीच में ‘ रु ‘ लिखा हुआ है तथा पिछले भाग पर श्री चंद्रादित्य लिखा हुआ है।

इस प्रकार गुप्त वंश का महान शासन समाप्त हुआ।

गुप्त वंश के परवर्ती शासकों के बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती।

गुप्त वंश के पतन के कई कारण थे:-

हूणों का आक्रमण:-

स्कंद गुप्त के समय से ही हूण भारी जमाव के साथ हिंदूकुश के दक्षिण में इकट्ठा होने लगे थे वे अत्यंत ही बर्बर परंतु युद्ध कला में प्रवीण थे स्कंद गुप्त ने उन्हें लगातार पराजित किया और आगे बढ़ने नहीं दिया परंतु उसके पश्चात कोई भी शासक इतना जागरूक और कर्मठ नहीं हुआ जिसके कारण हूणों और अन्य  शक्तियों को लगातार आक्रमण करने का अवसर मिल गया। लगातार आक्रमण और संघर्ष से गुप्त साम्राज्य कमजोर होता चला गया।

आंतरिक दुर्बलता:-

गुप्त वंश के शासकों की शासन व्यवस्था मांडलिक प्रणाली पर आधारित थी। उन्हें विशेष अवसरों पर दरबार में उपस्थित होना पड़ता था  परंतु  जैसे-जैसे गुप्त शासक कमजोर होते चले गए प्रांतीय अधीन शासकों ने स्वतंत्र होना प्रारंभ कर दिया।

गुप्त वंश के शासकों की अयोग्यता:-

बाद के गुप्त शासकों में योग्यता का अभाव दिखाई देता है जिस कारण से वे अपने साम्राज्य को सुरक्षित ना कर सके। 

गुप्त शासन व्यवस्था :-

राजा:-

राजा ही राज्य का सर्वोपरि अधिकारी था राज्य की अंतिम सत्ता उसी के अधीन थी। राजा की सहायता के लिए मंत्रिपरिषद थी परंतु राजा उनकी सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं था किन्तु गुप्त शासक स्वेच्छाचारी नहीं थे वे मंत्रिपरिषद की सलाह का सदैव सम्मान करते थे

गुप्त शासक बड़ी-बड़ी सैनिक उपाधियां धारण करते थे जिनमें महाराजाधिराज, परमेश्वर, पराक्रमांक, प्रकाशादित्य, विक्रमादित्य,बालादित्य आदि।

मंत्री परिषद:-

राजा की सहायता के लिए मंत्रिपरिषद होती थी। यह मंत्रिपरिषद मौर्य शासकों की मंत्रिपरिषद के समान थी परंतु इनका विस्तृत उल्लेख नहीं मिलता है फिर भी विभिन्न लेखों और सिक्कों के आधार पर कई मंत्रियों के पद का पता चलता है:-


महा दंड नायक(सेनापति),महा प्रतिहार(राज प्रसाद का रक्षक),महाअश्व पति(अश्व सेना का अध्यक्ष),अक्षपटलाधिकृत(राजकीय पत्र के मंत्री)

गुप्त वंश में प्रांतीय शासन:-

गुप्त काल में साम्राज्य कई प्रांतों में विभाजित किया गया था प्रांतों को भुक्ति या देश कहा जाता था।भुक्ति की देखभाल करनेेे वाले अधिकारी भोग पति, गोप्ता,उपरिक महाराज आदि नामों से पुकारे जाते थे।

प्रांतों के नीचे प्रदेश होता था जो कि मंडल के बराबर होता था और प्रदेश के नीचे विषय होता था जो जिले के बराबर होता था। विषय के शासक को विषयपति कहा जाता था।

विषयों (जिलों) का शासन:-

बंगाल के दामोदरपुर से प्राप्त एक ताम्रपत्र के अनुसार विषयों की राजधानी होती थी इसमें उसका सबसे बड़ा अधिकारी विषय पति रहता था। विषय पति के कार्यालय को अधिकरण कहा जाता था तथा उसके निवास स्थान को अधिष्ठान कहा जाता था।विषय पति की सहायता के लिए एक परिषद होती थी इसमें निम्नलिखित सदस्य थे:-

पुस्तपाल (जमीन की खरीद बिक्री की भी देखभाल करने वाला ),
नगर सेठ, श्रेणियों के प्रमुख भी इसके सदस्य होते थे।
सार्थवाह(नगर का मुख्य व्यापारी), प्रथम कुलिक( कारीगरों का प्रधान),

प्रादेशिक शासन में उसके मुख्य अधिकारियों के अलावा अनेक पदाधिकारी होते थे। जिस प्रकार राजा अपने मंत्रिपरिषद की सहायता से शासन करता था उसी प्रकार प्रांतों और विषयों के अधिकारी अपने नीचे के अधिकारियों के साथ मिलकर इकाइयों की देखभाल करते थे।

ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई थी इसके अधिकारी को ग्रामिक, भोजक अथवा महत्तर कहा जाता था।

न्याय विभाग:-

गुप्त शासकों की न्याय प्रणाली का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है परंतु उसी समय लिखी गई नारद स्मृति के  वर्णन से न्याय व्यवस्था की जानकारी प्राप्त होती है।

उस समय न्यायालय चार प्रकार के होते थे:-

कुल,श्रेणी, गण तथा राजकीय न्यायालय ।

वादी पहले कुल में वाद दायर करता था उसके पश्चात श्रेणी में और फिर गण में जाता था यदि वहां भी उसे न्याय नहीं मिलता था तो अंत में वह राजकीय न्यायालय में जाता था जहां पर परिस्थितियों और साक्ष्यों के आधार पर न्याय प्रदान किया जाता था। 

न्यायालय के प्रमुख अधिकारी को विनय स्थिति स्थापक कहा जाता था। न्याय का अंतिम अधिकार राजा के पास रहता था। फाह्यान नामक चीनी यात्री अपने विवरण में लिखता है कि गुप्त काल में अपराध कम होते थे और दंड कोमल था प्राण दंड और शारीरिक दंड बहुत कम दिए जाते थे। अपराध के अनुसार कम या अधिक अर्थ दंड दिया जाता था राज्य के विरुद्ध बार बार षडयंत्र करने पर दाहिना हाथ काट लिया जाता था।

आंतरिक सुरक्षा:-

सुरक्षा विभाग के सबसे बड़े अधिकारी को दंडपाशाधिकारी कहा जाता था। लाठी और रस्सी लेकर चलने वाले सिपाही को दंडापाशिक तथा चोर पकड़ने वाले सिपाही को चोरोद्धरणिक कहा जाता था।
गुप्त शासन में साम्राज्य में गुप्तचर व्यवस्था अत्यंत सशक्त रही होगी इसी कारण से अपराध कम से कम होते थे।

चीनी यात्री फाह्यान गुप्त शासन व्यवस्था से अत्यंत प्रभावित था। उसने अपने विवरण में लिखा है कि मैंने हजारों किलोमीटर की यात्रा की परंतु मुझे कहीं पर भी चोर और डाकू नहीं मिले।

गुप्त वंश की सामाजिक स्थिति:-

गुप्तकालीन समाज मुख्यतः चार वर्णों में बंटा हुआ था तथा यह चारों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र थे।  
समाज में इन सबके अतिरिक्त एक अन्य वर्ण था जो कि अपने खान पान व रहन सहन के कारण समाज से बिल्कुल अलग था। इस वर्ग में चांडाल, स्वपच व असभ्य जंगली जातियां आती थीं।

फाह्यान ने भी अपने यात्रा विवरण में लिखा है कि लोग इनसे किसी प्रकार का संबंध नहीं रखते थे इनका निवास गांव से दूर था। जब इन्हें गांव या नगर में आना होता था तो ये लकड़ी बजाते थे जिससे कि लोग इनसे दूर हट जाएं।
गुप्त काल में सामान्यतया अंतर्जातीय विवाह के उदाहरण भी मिलते हैं जिनमें चंद्रगुप्त द्वितीय के विभिन्न वर्णों में हुआ विवाह था इसके अलावा विधवा विवाह के उदाहरण स्वरूप चंद्रगुप्त द्वितीय का विवाह उसके भाई राम गुप्त की विधवा ध्रुव देवी के साथ हुआ था।

स्त्रियों का स्थान:-

इस काल में स्त्रियों का बहुत ऊंचा स्थान था वे माता, पत्नी और पुत्री के रूप में सम्मान पाती थीं। अनेक राजाओं के साथ उनकी माता का भी उल्लेख हुआ है। वंशावलियों में पिता के साथ माता का भी उल्लेख है। पत्नी का सम्मानपूर्ण स्थान था चंद्रगुप्त प्रथम ने अपनी पत्नी कुमार देवी का नाम अपने सिक्कों पर अपने साथ ही अंकित कराया था। इसके अलावा चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्ता एक विदुषी महिला थी उसने वाकाटक राज्य का संचालन किया था।

गुप्त वंश में वैश्या वृत्ति:-

समाज में वैश्या वृत्ति भी प्रचलित थी, वैश्याओं को गणिका कहा जाता था तथा वृद्ध  वैश्याओं को कुट्टनी कहा जाता था।

भोजन एवं वस्त्र:-

उस समय गुप्त शासक वैष्णव धर्म के अनुयाई थे इसका प्रभाव उनके जनता पर भी पड़ा जनता में मुख्यतः शाकाहार का ही प्रचलन था मांस मछली लहसुन प्याज का प्रयोग नहीं करते थे नशीले पदार्थों का प्रयोग कम होता था केवल अंत्यज जातियों में ही मांस का प्रयोग होता था।

गुप्त वंश के शासक सुंदर-सुंदर वस्त्र एवं आभूषणों के शौकीन थे उस समय के प्राप्त मूर्तियों के वस्त्रों और आभूषणों का श्रृंगार से यह अनुमान लगाया जा सकता है। चीन से रेशम का आयात किया जाता था और उनसे रेशमी वस्त्र बनाए जाते थे।

धार्मिक जीवन:-

शुंग वंश के शासकों की भांति ही गुप्त शासकों ने भी वैदिक धर्म का पुनरुत्थान किया। गुप्त शासक वैष्णव धर्म के अनुयाई थे। उनके समय में प्राचीन वैदिक धर्म अपने अलग रूप में सामने आता है इस समय तक धीरे-धीरे देवताओं की मानव रूप में पूजा प्रारंभ हो गई थी जिनमें प्रजापति, विष्णु, शिव, ब्रह्मा, वाराह, कृष्ण,बलराम आदि हैं। देवियों में दुर्गा, चामुंडा, लक्ष्मी आदि हैं। गुप्त शासकों ने अनेक मंदिरों का निर्माण कराया।

वैष्णव और शैव धर्म के अलावा उस समय बौद्ध और जैन धर्म भी पर्याप्त विकसित थे। चीनी यात्री फाह्यान ने अपने यात्रा वर्णन में बौद्ध धर्म के बारे में प्रकाश डाला है। बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय के उदय होने के बाद प्रारंभ में बुद्ध की मूर्तियों की स्थापना चैत्यों में की गई और बौद्ध धर्म धीरे-धीरे वैदिक धर्म से प्रभावित होता जा रहा था और उसका झुकाव उसी तरफ होता जा रहा था।

जैन धर्मावलंबियों की संख्या उस काल में कम थी यह उत्तर भारत से विदेशी आक्रमण के प्रभाव के कारण दक्षिण की ओर खिसकते जा रहे थे।

धार्मिक उदारता:-

गुप्त साम्राज्य में सभी धर्मों का पर्याप्त विकास हुआ और धार्मिक संघर्ष की भावना नगण्य थी इसका प्रमुख कारण गुप्त शासकों की उदार धार्मिक नीति थी। गुप्त शासक यद्यपि वैष्णव धर्म के अनुयाई थे परंतु उन्होंने अन्य सभी धर्मों का समान आदर किया तथा धर्म को राजनीति से पृथक रखा चंद्रगुप्त प्रथम का सेनापति अमरकार्दव बौद्ध था इसके अलावा सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने राजकुमारों की शिक्षा दीक्षा के लिए बौद्ध आचार्य वसुबंधु को नियुक्त किया था।

सांस्कृतिक जीवन:-

भाषा:-

इस समय संस्कृत भाषा का तीव्र विकास हुआ पहले सम्राट अशोक ने शासकीय व्यवहार की भाषा का माध्यम प्राकृत को बनाया था बाद में शुंग शासकों ने इसे संस्कृत कर दिया परंतु वे प्राकृत भाषा को प्रोत्साहित करते रहे परंतु धीरे-धीरे समय के साथ संस्कृत अपना स्थान प्राप्त करती गई। गुप्त शासन काल आते-आते संस्कृत की महत्ता पूर्ण रूप से स्थापित हो गई थी, गुप्त शासकों ने सर्वत्र अपने लेखों अपने सिक्कों और साहित्य में संस्कृत का प्रयोग किया।

साहित्य:-

गुप्त वंश के काल में संस्कृत साहित्य का अभूतपूर्व विकास हुआ। कुछ विद्वान कालिदास को चंद्रगुप्त द्वितीय के समय का मानते हैं परंतु यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।

गुप्त कालीन विद्वानों में वत्सभट्टि, वासुल, वीरसेन, हरिषेण आदि हैं।जिनमें मुद्राराक्षस और देवीचंद्रगुप्तम के रचयिता विशाखदत्त, स्वप्नवासवदत्ता के रचयिता सुबंधु, मृच्छकटिकम् नाटक के लेखक शुद्रक, हयग्रीव वध के रचयिता भर्तृमेंठ काव्यालंकार इसी युग की देन हैं।

इसके अतिरिक्त वात्सायन का कामसूत्र, ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका का लेख व चंद्रगुप्त द्वितीय के मंत्री कामंदक के नीति सार की रचना हुई जो कि राजनीति शास्त्र का ग्रंथ है।

नारद स्मृति की रचना इसी समय में हुई जिसमें न्याय व्यवस्था मुख्यतः दीवानी न्यायालय की व्यवस्था का विस्तृत वर्णन है।

विज्ञान:-

इस युग में ज्योतिष व गणित के कई प्रकांड विद्वान हुए जिनमें आर्यभट्ट ने गणित का ग्रंथ आर्यभट्टीयम लिखा उन्होंने ही सर्वप्रथम यह बताया कि धरती अपनी धुरी पर घूमती है, वाराहमिहिर ने ज्योतिष का प्रमुख ग्रंथ पंच सिद्धांतिका लिखा। ब्रह्मगुप्त ने ब्रह्म स्फुट सिद्धांत नामक ग्रंथ लिखा जिसमें उन्होंने पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का उल्लेख किया है।
भास्कर प्रथम ने भाष्य खगोल शास्त्र की रचना की।

विद्वानों का मत है कि आयुर्वेद के प्रकांड विद्वान धनवंतरि भी गुप्तकालीन थे जिन्होंने शल्य चिकित्सा पद्धति का सूत्रपात किया था।

विष्णु शर्मा कृत पंचतंत्र इसी युग की देन है जिसमें अत्यंत रोचक कहानियों के माध्यम से नीति का उपदेश दिया गया है।

इस युग में बौद्ध धर्म और जैन धर्म के भी अनेक विद्वान हुए।

बौद्ध विद्वानों में कुमारजीव, वसुबंधु, परमार्थ, आचार्य मैत्रेय, धर्मपाल, चंद्रगोमिन आदि प्रमुख हैं।

जैन विद्वानों में देवनंदिन, सिद्ध सेनमणि, जिन चंद्रमणि आदि प्रमुख हैं।

ललित कलाएं:-

यह युग ललित कलाओं की दृष्टि से भी स्वर्ण युग था इसमें स्थापत्य कला, मूर्तिकला, चित्रकला, नाटक आदि का चौमुखी विकास हुआ।

स्थापत्य कला:-

गुप्त वंश काल में अजंता, एलोरा और बाघ की गुफाएं खोदी गई थी और उन पर कलाकृतियां उत्कीर्ण की गई है।
इस काल में देवगढ़ का दशावतार मंदिर, भीतरगांव का मंदिर, बोधगया का महाबोधि मंदिर, एलोरा का विश्वकर्मा चैत्य, सारनाथ का धमेख स्तूप, महरौली का लौह स्तंभ जो अभी तक पूरी तरह सुरक्षित है प्रमुख हैं। इस काल के भवन निर्माण की प्रमुख विशेषता सुंदर सजावटों से अलंकृत खंभे हैं।

मूर्तिकला:-

मूर्तिकला का तीव्र विकास गांधार शैली में हुआ था जहां पर यूनानी शासकों ने यूनानी किस्म की मूर्ति को भारतीय चित्र से संवारा परंतु ये धीरे-धीरे जैसे-जैसे भारत के अंदरूनी भाग में बढ़ती गई उसका स्वरूप बदलता गया गांधार से मथुरा होते हुए पाटलिपुत्र पहुंचने तक मूर्तिकला का पूर्णतया भारतीयकरण हो गया।

मूर्तियां के वस्त्र उनके बाल व बालों की सजावट और भावना प्रधान अभिव्यक्ति अत्यंत उन्नत अवस्था में हो  गई। इस काल में शिव, विष्णु, ब्रह्मा, दुर्गा, पार्वती की मूर्तियां बनने लगी थीं, इसके अलावा बुद्ध, बोधिसत्व की सुंदर मूर्तियां पाई जाती हैं इस काल की सारनाथ में प्राप्त हुई बुद्ध की मूर्ति प्रसिद्ध है जो धर्म चक्र प्रवर्तन मुद्रा में है।इस काल की मूर्ति अपने सौंदर्य,सजीवता,आध्यात्मिकता की अभिव्यक्ति के कारण अत्यंत उन्नत किस्म की लगती है।

इस काल की प्रमुख मूर्तियां हैं-

उदयगिरि से प्राप्त पृथ्वी का उद्धार करती हुई वाराह की मूर्ति, झांसी के देवगढ़ से प्राप्त शेषशायी विष्णु की मूर्ति, काशी से प्राप्त गोवर्धनधारी कृष्ण की मूर्ति, भगवान कार्तिकेय की मूर्ति, भरतपुर से प्राप्त 27 फीट ऊंची बलदेव की मूर्ति और 10 फीट ऊंची लक्ष्मी नारायण की मूर्ति प्रमुख हैं ।
सारनाथ की बुद्ध मूर्ति, मथुरा की खड़ी हुई बुद्ध मूर्ति, सुल्तनगंज की बुद्ध की ताम्र मूर्ति, 
जैन धर्म में मथुरा से प्राप्त भगवान महावीर की मूर्ति जिसमें महावीर स्वामी पद्मासन में ध्यान मुद्रा में हैं।

चित्रकला:-

इस काल में बनी अजंता, एलोरा एवं बाघ की गुफाओं में दीवारों और छतों पर रंग बिरंगे रेखा चित्र बने हैं जिनमें मनुष्य, जानवरों, फूल पत्तों आदि के चित्र हैं।
अजंता की गुफा संख्या 16,17 एवं 19 गुप्तकालीन बताई जाती हैं।चित्रकारी की टेंप्रो (सूखे प्लास्टर पर चित्रकारी) एवं फ्रेस्को (गीले प्लास्टर पर चित्रकारी) शैली का प्रयोग हुआ है।
बाघ की गुफाएं ग्वालियर में स्थित है इनकी सबसे पहले खोज 1818 इसवी में डेंजरफील्ड ने की थी।

संगीत कला:-

समुद्रगुप्त स्वयं संगीत का प्रेमी था उसके प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार समुद्रगुप्त गंधर्व ललित कला में स्वर्गीय संगीतकार नारद और तुंबुरू को भी लज्जित करता था।
समुद्रगुप्त के सिक्कों में उसे वीणा बजाते हुए चित्रित किया गया है।

नाटक:-

इस काल में लिखे गए अनेक उच्च कोटि के नाटकों से यह पता चलता है कि नाट्य कला उन्नत अवस्था में थी तथा इस काल के साहित्य ग्रंथों में भी रंगमंच के विभिन्न अंगों के नाम और अभिनय के प्रकारों का वर्णन है।

मुद्रा:-

गुप्त काल की मुद्रा जितनी अधिक परिष्कृत और व्यवस्थित है इतनी और किसी काल की नहीं है भारतीयों के अपेक्षा यूनानी सिक्कों को माप तोल के आधार पर अधिक व्यवस्थित तरीके से बनाते थे बाद में भारतीयों ने अपने सिक्कों में भी सुधार किया ये सिक्के गुप्त काल तक आते-आते अत्यंत उच्च कोटि के हो गए। गुप्त काल के दीर्घकालीन शांति के कारण गुप्त काल में चौमुखी उन्नति हुई। इनके सोने के सिक्के बहुतायत में प्राप्त होते हैं गुप्त काल में सोने, चांदी, तांबे के सिक्कों पर सम्राटों व देेेवी देवताओं के चित्र उकेरे गए।

सबसे पहला गुप्तकालीन सिक्का चंद्रगुप्त प्रथम का प्राप्त होता है जिसमें एक तरफ चंद्रगुप्त का चित्र बना है उसके बाएं हाथ में ध्वजा और दाएं हाथ में अंगूठी है और वह अपने सामने खड़ी रानी कुमार देवी को उस अंगूठी को दे रहा है उसके दाहिनी तरफ श्रीकुमार देवी और बाईं ओर चंद्रगुप्त लिखा हुआ है। सिक्के के दूसरे पट पर लक्ष्मी का चित्र है जो शेर पर सवार है और उनके पैर के नीचे कमल है तथा वहीं पर लिच्छवयः लिखा है।ये सिक्के सोने के हैं और इनका वजन 111 ग्रेन  है।

समुद्रगुप्त के सिक्के:-

इन्होंने कई प्रकार के सिक्के चलाये, इन सिक्कों की धातु सोना और तांबा है।
समुद्रगुप्त के सिक्के अलंकार पूर्ण हैं इनपर अनेकों प्रकार के चित्र अलंकृत हैं जिनमें-
समुद्रगुप्त के अश्वमेध शैली के सिक्के हैं जिन्हें समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ के उपलक्ष में जारी किया था सिक्कों के एक तरफ यज्ञ से बंधा हुआ अश्व का चित्र है तथा दूसरी तरफ चंवर डुलाती हुई राजमहिषी का चित्र है और अश्वमेध पराक्रमः लिखा हुआ है। समुद्रगुप्त के अन्य प्रकार के सिक्के में वह वीणा बजा रहा है।
इसके अलावा समुद्रगुप्त के गरुड़ध्वज अंकित सिक्के,परशु लिए समुद्रगुप्त के चित्र से अंकित सिक्के,धनुष बाण लिए सिक्के आदि हैं।

समुद्रगुप्त के प्राप्त सोने के सिक्कों की माप 118 ग्रेन के आसपास है इसके अलावा इसके दो तांबे के सिक्के प्राप्त हुए हैं जिनके ऊपर गरुड़ का चित्र और समुद्र लिखा हुआ है।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के सिक्के:-

चंद्रगुप्त द्वितीय के कई प्रकार के सिक्के प्राप्त होते हैं ये सोने चांदी और तांबे के हैं।
इसमें एक प्रकार के सिक्के पर राजा का चित्र खड़ी मुद्रा में है उसका एक हाथ तलवार की मूठ पर है और उसके पीछे एक वामन व्यक्ति क्षत्र पकड़ा हुआ है और सिक्के के दूसरी तरफ कमल पर खड़ी लक्ष्मी का चित्र है।
अन्य प्रकार के सिक्कों में सम्राट को सिंह से युद्ध करते हुए दिखाया गया है और सिक्के के दूसरे पट पर शेर पर आसीन लक्ष्मी का चित्र उत्कीर्ण है।

अन्य प्रकार के सिक्के पर सम्राट घोड़े पर सवार है इसके अलावा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के धनुर्धर प्रकार के सिक्के प्राप्त होते हैं।
चंद्रगुप्त द्वितीय के  सोने के सिक्कों की माप 121, 125 और 132 ग्रेन हैं।
चंद्रगुप्त की विक्रमादित्य की चांदी के सिक्कों पर सम्राट के कमर से ऊपर के शरीर का चित्र है और दूसरी तरफ गरुड़ का चित्र है।

के कुछ तांबे के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं जिनपर गरुड़ का चित्र उत्कीर्ण है।

कुमारगुप्त के सिक्के:-

इस राजा के सिक्के सबसे अधिक कलात्मक प्रकार के हैं के अश्वमेध प्रकार के सिक्के पर एक तरफ यज्ञ का अश्व बंधा है और दूसरी तरफ राजमहिषी का चित्र उत्कीर्ण है।
कुमारगुप्त के धनुर्धर प्रकार के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं 
इसके अलावा अन्य प्रकार के सिक्कों पर सिंह से युद्ध करते हुए  सम्राट का चित्र और दूसरी तरफ सिंह पर आसीन दुर्गा का चित्र अंकित है।

कुमारगुप्त का राजा रानी  प्रकार के सिक्के प्राप्त हुए हैं जिसमें वृद्ध राजा और युवती रानी का चित्र उत्तीर्ण है।
अन्य प्रकार की सिक्कों में कुमारगुप्त का मोर को फल खिलाते हुए चित्र है इसकी दूसरी तरफ मयूर पर बैठे हुए कुमार कार्तिकेय का चित्र उत्तीर्ण है।

इसके अतिरिक्त अश्वारोही प्रकार के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं।
कुमारगुप्त के समय में प्रचलित सिक्कों का वजन 125 और 129 ग्रेन है।

स्कंदगुप्त के समय के सिक्के केवल दो प्रकार के हैं:- 

एक प्रकार के सिक्कों में एक ओर धनुष बाण लिए सम्राट का चित्र है और दूसरी ओर कमल पर आसीन लक्ष्मी का चित्र है।
दूसरे प्रकार के सिक्कों में एक ओर सम्राट और राज महिषी का चित्र है बीच में गरुड़ध्वज है और दूसरी ओर हाथ में कमल लिए देवी का चित्र है।
अन्य गुप्त शासकों के भी सिक्के प्राप्त हुए हैं।

आर्थिक जीवन:-

आर्थिक मामलों में भी गुप्त काल भारत का स्वर्ण काल कहा जाता है इस समय भारत का व्यापार और उद्योग अपनी उन्नति के चरमोत्कर्ष पर था। गुप्त शासकों द्वारा बहुतायत में चलाए गए स्वर्ण सिक्कों से  यह बात सिद्ध होती है इसके अलावा कई लेखों से भी इसका प्रमाण प्राप्त होता है।

कृषि:-

भू राजस्व उपज का छठा भाग लिया जाता था।
भूमि को चार भागों में बांटा गया था
कृषि योग्य भूमि क्षेत्र काला टीका कहलाती
निवास योग्य भूमि के वास कहा जाता था
पशुओं के चरने योग्य भूमि चारागाह भूमि कही जाती थी।
जिस भूमि पर जुताई नहीं होती उसे सिल कहा जाता था।
जंगली भूमि अप्रहत कही जाती थी।
सिंचाई के लिए रहट व नहरों का प्रयोग होता था।

उद्योग धंधे:-

वस्त्र उद्योग उन्नत अवस्था में था, जुलाहों के बनाए गए वस्त्र लोग काफी मात्रा में धारण करते थे। चीन से भी रेशमी वस्त्र आता था। गुप्त साम्राज्य बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक विस्तृत था इसके अतिरिक्त दक्षिण के राज्य  गुप्तों के प्रभाव क्षेत्र में थे इस कारण हिंद महासागर का व्यापारिक मार्ग उनके प्रभाव में था। इस प्रकार स्थल और जल दोनों मार्गों से व्यापार होता था। गुप्त काल के प्रमुख बंदरगाह अरब सागर के तट पर स्थित भृगु कच्छ व बंगाल की खाड़ी के तट पर स्थित ताम्रलिप्ती थे।

गुप्त वंश का काल भारत का स्वर्ण काल कहा जाता है।गुप्त शासकों लगभग 300 वर्षों तक भारत पर शासन किया। उनके अनेक यशस्वी शासक हुए।

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