कलचुरी वंश
कलचुरी वंश के कई शक्तिशाली शासक हुए जिन्होंने काफी समय तक इस देश की राजनीति को प्रभावित किया।
कलचुरी वंश की उत्पत्ति:-
वंश की उत्पत्ति की जानकारी इनके विभिन्न लेखों तथा चालुक्य लेखों से मिलती है।
कलचुरी शासक कर्ण के वाराणसी ताम्रपत्र तथा युवराज देव के बिल्हारी अभिलेख के अनुसार, ये चंद्रवंशी हैहय शासक कार्तवीर्य अर्जुन जिसे सहस्त्रार्जुन भी कहा जाता है के वंशज थे।
चालुक्य शासकों के लेख में विक्रमादित्य प्रथम के पुत्र विनयादित्य के द्वारा हैहय (कलचुुरियों) की पराजय का वर्णन है।
जिस माहिष्मती राज्य की स्थापना सम्राट मांधाता ने की थी। वह हैहयों(बाद के कलचुरी) का प्रमुख स्थान था। बाद में इनका इतिहास काफी समय तक लुप्त रहा। अंत में 416- 17 ईसवी के आसपास माहिष्मती में राजा सुबंधु की स्थिति का पता चलता है, जोकि उसके दो दान पात्रों से ज्ञात होता है।
इतिहास जानने के स्रोत:-
विल्हड़ कृत विक्रमांकदेव चरित,कृष्ण मिश्र कृत प्रबोध चंद्रोदय,राजशेखर कृत विद्धसालभंजीका, संध्याकर नंदी कृत रामचरित, कर्ण का बनारस अभिलेख, युवराज देव का बिलहारी अभिलेख, गांगेय देव का मुकुंदपुर अभिलेख, कर्ण का गोरहवा अभिलेख, शंकरगण का छोटी देवड़ी व सागर अभिलेख आदि।
कोकल्लदेव प्रथम:-
कलचुरी वंश का संस्थापक कोकल्लदेव प्रथम था जिसने 879 ईसवी में त्रिपुरी(जबलपुर के पास) नामक स्थान पर कलचुरी वंश को पुनः स्थापित किया।
कोकल्लदेव ने अपनी पुत्री का विवाह राष्ट्रकूट राजा कृष्ण द्वितीय के साथ किया था तथा स्वयं उसने चंदेल राजकुमारी नट्टा देवी के साथ विवाह किया था इन सब से उसकी शक्ति में काफी विकास हुआ।
वाराणसी के लेख के अनुसार उसने चित्रकूट के राजा श्री हर्ष और शंकरगण को अभयदान दिया था। नारायण पाल के भागलपुर दान पत्र के अनुसार अनुमान लगाया जाता है कि कोकल्लदेव ने अपनी पुत्री लज्जा का विवाह पाल शासक विग्रह पाल से किया था। पृथ्वी देव प्रथम के 831 ईसवी के अमोडा अभिलेख के अनुसार कोकल्लदेव ने वंग, गुर्जर, शाकंभरी,तुरुष्क आदि राजाओं को परास्त किया था।
कोकल्लदेव के पश्चात उसका पुत्र शंकरगण राजा बना उसने दक्षिण कोशल के राजा से पाली क्षेत्र(बिलासपुर) जीता।
शंकरगण के पश्चात उसका पुत्र बालहर्ष राजा हुआ।
बालहर्ष के पश्चात उसका छोटा भाई युवराज देव प्रथम शासक बना।
युवराज देव प्रथम :-
उसने अनेक क्षेत्रों में अपने विजय अभियान किए। बिलहारी लेख के अनुसार उसने तीनों समुद्रों(अरब सागर,हिंद महासागर,बंगाल की खाड़ी) व कैलाश तक अपनी विजय यात्रा की थी। वह परमेश्वर और त्रिकलिंगाधीपती की उपाधि धारण करता था। उसने चालुक्य राजकुमारी नोहलादेवी से विवाह किया था तथा अपनी पुत्री कंदकादेवी का विवाह राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष तृतीय के साथ किया था।
खजुराहो शिलालेख के अनुसार चंदेल राजा यशोवर्मन ने उसे पराजित किया था।
लक्ष्मण राज:-
लक्ष्मण राज भी एक विजेता शासक था उसके बाद के शासकों ने अपने लेखों में वर्णन किया है कि उसने बंगाल, कश्मीर, पांड्य, गुर्जर और लाट राजाओं को हराया था। बिलहारी लेख के अनुसार उसने कोशल और उड़ीसा पर आक्रमण किया था।राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय से पराजित हो गया था।
970 ईसवी में उसके पुत्र तृतीय शंकरगण ने शासन संभाला वह चंदेलों से पराजित हो गया। शंकरगण के पश्चात उसका छोटा भाई युवराज देव द्वितीय 980 ईसवी में गद्दी पर बैठा।
उदयपुर प्रशस्ति के अनुसार परमार राजा वाकपति मुंज ने उसे हराकर त्रिपुरी पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।
उसके पश्चात990 ईसवी में द्वितीय कोकल्लदेव सिंहासनारुढ़ हुआ और 1015 ईसवी तक शासन किया।
गांगेय देव:-
द्वितीय कोकल्लदेव की मृत्यु के पश्चात 1015 ईसवी में गांगेय देव सिंहासन पर बैठा वह एक वीर और पराक्रमी शासक था और उसने अपनी विजय और सीमा विस्तार के द्वारा कलचुरी वंश की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया।
प्रारंभ में उसने चंदेल राजा विद्याधर की तरफ से कन्नौज के प्रतिहार राजा राज्यपाल से युद्ध किया था।
कुलनेर अभिलेख के अनुसार उसने कुंतल के राजा जयसिंह के विरुद्ध परमार राजा भोज और राजेंद्र चोल से युद्ध संधि की थी तथा उसने जय सिंह पर आक्रमण किया था।
उदयपुर प्रशस्ति और कलवान के लेख के अनुसार राजा भोज ने गांगेय देव पर आक्रमण करके उसे पराजित किया था।
रीवा लेख के अनुसार गांगेय देव ने तुम्माण के कलचुरी सामंत कमल राज की सहायता से उत्कल प्रदेश (उड़ीसा) को जीता था और दक्षिण कोशल को भी एक लंबे संघर्ष के बाद जीतने में सफल हुआ।
गांगेय देव ने विभिन्न स्थानों तक कांगड़ा घाटी दोआब क्षेत्र एवं प्रयाग को विजित किया। तारीख ए वैहाकी के लेखक के अनुसार उसने वाराणसी को भी विजित किया था। गांगेय देव ने प्रयाग को अपनी दूसरी राजधानी बनाया और 1041 ईसवी में वहीं उसकी मृत्यु हुई।
लक्ष्मी कर्ण:-
गांगेय देव की मृत्यु के पश्चात 1041 ईसवी में लक्ष्मी कर्ण गद्दी पर बैठा।वह एक विजेता शासक था।उसने कई युद्ध लड़े।
रीवा शिलालेख के अनुसार उसने पूर्वी बंगाल के शासक को पराजित किया था।
उसने गुर्जर देश पर आक्रमण किया, चालुक्यों से युद्ध किया।
लक्ष्मी कर्ण को मध्ययुग का नेपोलियन कहा जाता है।
उसने परमार शासक भोज पर आक्रमण करने के लिए गुजरात के शासक भीम से संधि कर ली और एक सैनिक संघ बनाया इस संघ ने मालवा राज्य पर पूरब और पश्चिम दोनों तरफ से आक्रमण किया पर दुर्भाग्यवश राजा भोज की इसी दौरान मृत्यु हो गई इस परिस्थिति का लाभ उठाकर कर्ण ने भोज के उत्तराधिकारी जय सिंह को गद्दी से उतार दिया और धारा पर अधिकार कर लिया। प्रबंध चिंतामणि के लेख के अनुसार कर्ण ने संधि की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया और सारा मालवा अपने कब्जे में कर लिया इससे क्रोधित होकर भीम ने त्रिपुरी पर आक्रमण कर दिया।
अंत में कर्ण ने उसे कुछ हाथी,घोड़े और धन देकर शांत किया।
लक्ष्मी कर्ण ने चंदेल राज्य पर भी आक्रमण किया और वहां के शासक देववर्मन को मार कर जेजाकभुक्ति को अपने राज्य में मिला लिया। उसने बंगाल पर भी आक्रमण किया इसमें विजयी हुआ या पराजित यह संदिग्ध है।
अंत में उसने बंगाल के पाल शासक विग्रह पाल से अपनी पुत्री भुवनश्री का विवाह कर दिया।
इन विजयों से उसका प्रभाव पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में गुजरात के पास तक, दक्षिण में चालुक्य राज्य से लेकर उत्तर में कांगड़ा तक हो गया।
परंतु उसने जेजाकभुक्ति और मालवा को अपने राज्य में मिला लिया।अपने जीवन के अंत में उसे पराजय का सामना करना पड़ा। मालवा के जय सिंह और चालुक्य के सोमेश्वर प्रथम ने आपस में संधि करके उसपर आक्रमण किया।
महोबा शिलालेख व प्रबोध चंद्रोदय के अनुसार चंदेल राजा कीर्ति वर्मन ने उसे पराजित किया।
नागपुर शिलालेख के अनुसार कर्ण ने चालुक्य शासक सोमेश्वर द्वितीय के साथ मिलकर मालवा पर पुनः आक्रमण किया व उसपर अधिकार कर लिया पर भोज के भाई उदयादित्य ने उनसे राज्य की रक्षा की।1073 ईसवी में कर्ण ने अपने पुत्र यश: कर्ण का अभिषेक किया।
यश: कर्ण :-
जबलपुर लेख के अनुसार 1074 ईसवी में यश: कर्ण ने रत्नपुर शाखा के कलचुरि शासक जाजल्ल देव की सहायता से आंध्र देश पर आक्रमण करके सप्तम विजयादित्य को पराजित किया।उसने चंपारण पर भी आक्रमण किया।
अब कलचुरि राज्य का पतन होने लगा क्योंकि मालवा व कन्नौज उसके राज्य से अलग हो गए। वाराणसी को गढ़वालों ने जीत लिया।
परमार शासक लक्ष्मण देव व चंदेल शासक संलक्षण वर्मन ने उसे पराजित किया।
चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ से भी वह पराजित हुआ।
1123 ईसवी में उसकी मृत्यु हुई।
उसके बाद गया कर्ण फिर नर सिंह शासक बने।
नर सिंह के बाद उसका भाई जय सिंह शासक बना उसने अपने राज्य की शक्ति को कुछ मात्रा में बचा कर रखा।
उसके उत्तराधिकारी बिल्कुल कमजोर हो गए और शीघ्र ही समाप्त हो गए।
इसे भी देखें:-
कलचुरी शासन(विकिपीडिया)