इल्तुतमिश

इल्तुतमिश का शासन 1211 ईसवी से लेकर 1236 ईसवी तक रहा।

इल्तुतमिश ऐबक का वंशज नहीं कर था इसलिए उसके साथ ही एक नवीन राजवंश का उदय हुआ।

कानूनी तरीके से इल्तुतमिश दिल्ली का प्रथम सुल्तान था।क्योंकि उसने सुल्तान के पद की स्वीकृति खलीफा से प्राप्त की थी ना कि गोर के शासक से।

इसके अलावा सिंहासन पर बैठने के समय इल्तुतमिश दास नहीं था।

मुहम्मद गोरी ने पहले ही कुतुबुद्दीन ऐबक से कहकर उसे दासता से मुक्ति दिला दी थी।

इल्तुतमिश का प्रारंभिक जीवन:-

शमसुद्दीन इल्तुतमिश एक गुलाम का गुलाम था। उसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1197 ईसवी में हुए अंहिलवाडा के युद्ध के पश्चात खरीदा था।

इल्तुतमिश इल्बरी तुर्क था।उसके पिता का नाम इलाम खां था। जो अपने कबीले का प्रमुख था।

इल्तुतमिश प्रारंभ से ही योग्य और आकर्षक था इस कारण उसका पिता उसे बहुत स्नेह करता था।
पिता के स्नेह के कारण वह अपने भाइयों की ईर्ष्या का पात्र बन गया। उसके भाइयों ने उसे मेला दिखाने के बहाने वहां ले जाकर गुलामों के एक व्यापारी को बेच दिया।

उसके बाद उसे दो बार और बेंचा गया। अंत में जमालुद्दीन मोहम्मद नामक गुलामों का व्यापारी उसे बेंचने गजनी ले गया।
वहां मुहम्मद गोरी ने उसे खरीदना चाहा। परंतु व्यापारी द्वारा अधिक धन मांगने के कारण यह सौदा नहीं हो सका।जिससे गोरी ने उसे गजनी में बेंचने पर रोक लगा दी।

अंत में कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1197 ईसवी में उसे दिल्ली में खरीद लिया।

ऐबक ने प्रारंभ में उसे सर ए जांदार(अंगरक्षकों का प्रधान) का पद दिया। इसके पश्चात उन्नति करते करते वह अमीरे शिकार के पद पर पहुंच गया।
ग्वालियर के किले को जीतने के पश्चात उसे वहां का किलेदार बनाया गया।
उसके बाद उसे बरन(बुंदेलखंड) का इक्ता सौंपा गया।अंत में उसे दिल्ली के नजदीक का बदायूं का इक्ता सौंपा गया।

मुहम्मद गोरी ने कुतुबुद्दीन ऐबक को कहकर उसे पहले ही दासता से मुक्ति दिला दी थी। 

ऐबक की मृत्यु के पश्चात उसके सरदार अमीर अली इस्माइल ने तुर्की अमीरों की सम्मति से इल्तुतमिश को दिल्ली बुलाया।
दिल्ली पहुंचकर उसने अपने आपको सुल्तान घोषित कर दिया।
अब आरामशाह दिल्ली की ओर बढ़ा तो इल्तुतमिश ने उसे परास्त करके मार डाला।

क्या इल्तुतमिश सिंहासन का अपहरणकर्ता था?:-

डा. अर्नाल्ड नामक इतिहासकार के अनुसार ऐबक का पुत्र आरामशाह था और लाहौर के तुर्क सरदारों ने उसे सुल्तान चुना था। परंतु इल्तुतमिश ने उससे गद्दी छीन ली थी।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार आरामशाह ऐबक का पुत्र नहीं था। 

तबकात ए नासिरी के लेखक मिन्हाज उस सिराज के अनुसार ऐबक के पुत्र नहीं था वरन तीन पुत्रियां थीं।मिन्हाज इल्तुतमिश की सेवा में था।

आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार उस समय तलवार की शक्ति ही सुल्तान का निर्णय करती थी।उस समय तक तुर्कों में उत्तराधिकार का नियम नहीं था।इसलिए इल्तुतमिश को दोष नहीं दिया जा सकता।

सुल्तान इल्तुतमिश:-

इल्तुतमिश के शासक बनने के समय उसके सम्मुख अनेक कठिनाइयां थीं। उस समय उसके अनेक विरोधी थे।अनेक कुतुबी(कुतुबुद्दीन के समय के) और मुइज्जी(मुहम्मद गोरी के समय के) सरदार इल्तुतमिश से ईर्ष्या करते थे और उसे दबाने की ताक में थे।

राजपूत लगातार संघर्ष कर रहे थे और उन्होंने ग्वालियर,रणथंभौर,जालौर को मुक्त करा लिया था।

उच्छ,मुल्तान का शासक नसीरुद्दीन कुबाचा ने उसके कुछ प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था।

ताजुद्दीन येल्दिज जो गजनी का सूबेदार था वह ऐबक का तो श्वसुर था पर इल्तुतमिश से उसका कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था। वह दिल्ली पर अपना अधिकार मानता था।

खलीफा से सुल्तान के पद की स्वीकृति:-

इल्तुतमिश ने बगदाद के खलीफा से यह मांग की कि उसे सुल्तान के पद की स्वीकृति प्रदान करें। खलीफा ने 1229 ईसवी में अपना एक प्रतिनिधि स्वीकृति पत्र के साथ इल्तुतमिश के पास भेजा।

इस प्रकार वह मुस्लिम कानून के अनुसार सुल्तान बन गया।

इल्तुतमिश द्वारा तुर्कान ए चिहलगानी(चालीस गुलामों का दल) का गठन :-

इल्तुतमिश को अपने सरदारों पर पूरा विश्वास नहीं था।इसलिए उसने अपने वफादारों का एक दल बनाया जो उसके गुलाम भी थे।इसे तुर्कान ए चिहलगानी का नाम दिया गया। इन गुलामों को महत्वपूर्ण पद दिए गए।
इनकी उन्नति का कारण इल्तुतमिश ही था इसलिए ये उसके प्रति उसके पूरे जीवनकाल तक वफादार रहे।

ताजुद्दीन येल्दिज से मुक्ति:-

ताजुद्दीन येल्दिज गजनी का शासक था। वह कुतुबुद्दीन ऐबक का स्वशुर था। वह दिल्ली को अपने अधिकार में मानता था।जब इल्तुतमिश शासक बना तो येल्दिज ने उसे छत्र भेजा और अन्य सामग्रियां भेजीं जिससे यह साबित हो कि इल्तुतमिश उसका अधीनस्थ शासक है।
इल्तुतमिश इसपर कुछ नहीं बोला और अपनी शक्ति दृढ करता रहा।

सन 1215 ईसवी में येल्दिज ख्वारिज्म शाह से परास्त होकर लाहौर भाग आया और थानेश्वर पर अधिकार कर लिया।
अब इल्तुतमिश ने  उसका मुकाबला करने की तैयारी की। 1216 ईसवी में तराइन का युद्ध हुआ इसमें येल्दिज पराजित होकर कैद कर लिया गया।उसे बदायूं भेज दिया गया जहां उसका कत्ल कर दिया गया।

मंगोल समस्या:-

इल्तुतमिश के समय में मंगोलों का महान नेता तेमू जिन(चंगेज खां) विश्व विजय पर निकला था। उसने मध्य एशिया से यूरोप तक आतंक मचा रखा था।
मध्य एशिया के मुस्लिम राज्य इराक,तुर्किस्तान,पर्शिया(ईरान) को रौंद दिया था।

ईरान का शासक अलाउद्दीन मोहम्मद ख्वारिज्म शाह भागकर कैस्पियन सागर की ओर चला गया था जबकि उसका लड़का जलालुद्दीन मंगबर्नी सिंधु नदी के ऊपरी भाग पर पहुंच गया।
चंगेज खां उसका पीछा करते हुए आया और सिंधु नदी के पास रुक गया।

जलालुद्दीन मंगबर्नी एक योग्य और साहसी नेता था उसने यहां आकर कुछ स्थानों पर अधिकार कर लिया। खोक्खर नेता राय खोक्खर की पुत्री से विवाह किया। अब वह पश्तूर को जीत कर आगे बढ़ा।

उसने इल्तुतमिश के दरबार में एक दूत भेजा और मंगोलों के विरुद्ध उससे सहायता मांगी।जलालुद्दीन मुस्लिम था और मुस्लिम शासक की सहायता अन्य मुस्लिम शासक को करना चाहिए था।परंतु इल्तुतमिश ने ऐसा नहीं किया।
इल्तुतमिश ने उस समय समझदारी का परिचय दिया। उसने जलालुद्दीन के दूत का वध करा दिया और विनम्रता से उसे सहायता देना अस्वीकार कर दिया।साथ ही अपनी सेना तैयार किया तथा जलालुद्दीन से आग्रह किया कि वह पंजाब छोड़ दे।

उस समय जलालुद्दीन को सहायता देने का अर्थ था।चंगेज खां जैसे महान सेनानायक से शत्रुता मोल लेना।जिसके विरुद्ध इल्तुतमिश की जीत की संभावना ना के बराबर थी।

इसके बाद जलालुद्दीन ने उच्छ के सूबेदार नसीरुद्दीन कुबाचा पर हमला करके उसे परास्त किया।
वास्तव में जलालुद्दीन ने कुबाचा का ही सबसे अधिक नुकसान किया।
कुछ समय पश्चात जलालुद्दीन अपने कुछ अधिकारियों को छोड़कर 1224 ईसवी में वापस पर्शिया चला गया।

इस प्रकार इल्तुतमिश ने अपनी समझदारी से अपने राज्य को नष्ट होने से बचा लिया।
चंगेज खां ने अपने जीवनकाल में सिंधु नदी के इस पार अपना कदम नहीं रखा।

नासिरुद्दीन कुबाचा का अंत:-

कुबाचा मुहम्मद गोरी का गुलाम था।गोरी ने गजनी की सूबेदारी ताजुद्दीन येल्दिज, उच्छ और मुल्तान की सूबेदारी नासिरुद्दीन कुबाचा और दिल्ली की सूबेदारी कुतुबुद्दीन ऐबक को दी थी।
गोरी की मृत्यु के बाद ये अपने अपने क्षेत्र के स्वामी बन गए।
कुबाचा ने ऐबक की बहन से विवाह किया था इसलिए वह उसका संबंधी था। जबकि इल्तुतमिश से उसका कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था।

कुबाचा ने इल्तुतमिश के समय में सुरसती,भटिंडा आदि स्थानों पर अधिकार कर लिया था।
जलालुद्दीन मंगबर्नी के आने से कुबाचा की शक्ति को बहुत नुकसान पहुंचा।
मंगबर्नी के जाने के बाद 1228 ईसवी में इल्तुतमिश ने उच्छ और मुल्तान पर एक साथ आक्रमण किया।कुबाचा ने भागकर भक्खर के किले में शरण ली।

मई तक इल्तुतमिश का उच्छ पर अधिकार हो गया।
जब कुबाचा भक्खर में कमजोर पड़ने लगा तो उसने संधि की बात की लेकिन इल्तुतमिश ने उसे बिना शर्त आत्मसमर्पण करने को कहा। कुबाचा इसे नहीं माना।अंत में उसने सिंधु नदी में डूबकर आत्महत्या कर ली।

इस प्रकार उच्छ और मुल्तान को दिल्ली के राज्य में मिला लिया गया।

बंगाल पर अधिकार:-

बंगाल के सूबेदार मुहम्मद बिन बख्तियार खलजी को उसके सरदार अलीमर्दन खां ने 1206 ईसवी में मार दिया।
परंतु खलजी सरदारों ने उसे पकड़कर कैद कर लिया और मुहम्मद शेरा को इस शर्त पर शासक बनाया कि वह दिल्ली की अधीनता स्वीकार नहीं करेगा।

अलीमर्दन खां कैद से छूटकर ऐबक के पास गया और ऐबक ने उसकी सहायता करके उसे इस शर्त पर बंगाल में सहायता दी की वह दिल्ली के अधीन रहेगा।

ऐबक की मृत्यु के पश्चात अलीमर्दन ने अपने को स्वतंत्र शासक बना लिया। लेकिन उसके सरदारों ने उसको कत्ल करके हिसामुद्दीन एवाज खलजी को गद्दी पर बैठाया। एवाज ने सुल्तान गयासुद्दीन की उपाधि ग्रहण की।

इल्तुतमिश दक्षिणी बिहार को जीतकर आगे बढ़ा। गयासुद्दीन उसका सामना करने आया परंतु बिना युद्ध के संधि कर ली तथा बहुत सा धन दिया।

इल्तुतमिश ने मलिक जानी को बिहार का सूबेदार नियुक्त कर दिया।
गयासुद्दीन ने मलिक जानी को बिहार से निकल दिया।

कुछ समय पश्चात जब गयासुद्दीन अपनी पूर्वी सीमा पर युद्ध के लिए गया था तो इल्तुतमिश के पुत्र और अवध के सूबेदार नसीरुद्दीन महमूद ने बंगाल पर आक्रमण कर दिया। गयासुद्दीन वापस लौटा पर युद्ध में मारा गया। अंत में 1226 ईसवी में लखनौती पर नसीरुद्दीन महमूद ने अधिकार कर लिया।

परंतु शीघ्र ही 1229 ईसवी में  नसीरुद्दीन की मृत्यु हो गई और मलिक इख्तियारुद्दीन बल्का खलजी ने गद्दी पर अधिकार कर लिया।

1230 ईसवी में इल्तुतमिश स्वयं बंगाल गया।इख्तियारुद्दीन युद्ध में मारा गया।अब इल्तुतमिश ने बंगाल और बिहार में पृथक -पृथक इक्तादार नियुक्त कर दिए।

इल्तुतमिश का हिंदुओं से संघर्ष:-

इल्तुतमिश के समय तक हिंदुओं ने अनेक क्षेत्रों पर पुनः अपना अधिकार कर लिया था।

पृथ्वीराज के भाई गोविंदराज के नेतृत्व में चौहानों ने रणथंभौर को अपने अधिकार में कर लिया था।
प्रतिहारों ने झांसी,ग्वालियर और नरवर पर अधिकार कर लिया था।
चंदेलों ने कालिंजर और अजयगढ़ को जीत लिया था।
भट्टी राजपूतों ने अलवर को स्वतंत्र करा लिया था।

दोआब के कई क्षेत्र स्वतंत्र हो गए थे। कन्नौज,बनारस,कटेहर और बदायूं स्वतंत्र हो गए थे।

इल्तुतमिश ने आक्रमणकारी नीति का पालन किया।

1226 ईसवी में उसने रणथंभौर को पुनः जीत लिया।
उसने 1228 में जालौर के शासक उदयसिंह को कर देने के लिए बाध्य किया।

फिर उसने अजमेर,बयाना,नागौर और थंगौर को जीता।
1231 ईसवी में उसने ग्वालियर के किले का घेरा डाला और एक वर्ष के कठिन संघर्ष के बाद उसे जीत लिया।

उस समय कालिंजर में चंदेल शासक राज्य करता था।इल्तुतमिश ने 1233-34 में ग्वालियर के सूबेदार मलिक तुसराउद्दीन तयसाई को कालिंजर पर आक्रमण करने के लिए भेजा। वहां का शासक भाग गया। कालिंजर को तुर्कों ने लूटने में सफलता पाई।

जब इल्तुतमिश ने गुजरात के चालुक्यों और नागदा के गुहिलोतों पर आक्रमण किया तो उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा।

1235 ईसवी में इल्तुतमिश ने मालवा पर आक्रमण किया।उसने उज्जैन के महाकाल और भिलसा के प्राचीन मंदिर को लूटा और नष्ट कर दिया।

परंतु इल्तुतमिश की यह एक लूट मात्र थी।वह मालवा पर अधिकार नहीं कर सका।

दोआब:-

इल्तुतमिश दोआब की ओर बढ़ा तो उसने धीरे धीरे बनारस,कटेहर,कन्नौज,बदायूं और बहराइच को पुनः जीत लिया। अवध पर भी उसका अधिकार हो गया।

अवध में पिरथू का विद्रोह हुआ। इसे दबाने के लिए अवध के सूबेदार नसीरुद्दीन महमूद ने अपने पिता इल्तुतमिश को बताया कि उसने एक लाख बीस हजार मुसलमानों की कुर्बानी दी।

इल्तुतमिश को उत्तर भारत में सदैव संघर्ष करना पड़ा।
उत्तर भारत की उसकी विजय पूर्ण नहीं थी अपितु कई स्थानों पर जैसे नागदा और गुजरात में उसे पराजित होना पड़ा।

इल्तुतमिश का हिंदुओं के प्रति व्यवहार:-

इल्तुतमिश धार्मिक रूप से कट्टर था।उसके समय में इस्लामिक कानून के अनुसार हिंदुओं के साथ भी व्यवहार होता था।

उसने जिस भी स्थान पर पहुंचने में सफलता प्राप्त की वहां के हिंदू मंदिरों को नष्ट किया गया।

उसने उज्जैन के महाकाल और भिलसा के प्राचीन मंदिर को लूटा और नष्ट कर दिया।

मृत्यु:-

1236 ईसवी में इल्तुतमिश सिंधु के दोआब पर आक्रमण के लिए निकला मार्ग ने वह बीमार हो गया और अप्रैल माह में उसकी मृत्यु हो गई।

इल्तुतमिश के जीवन काल में ही उसके बड़े और योग्य पुत्र नसीरुद्दीन मुहम्मद की मृत्यु हो चुकी थी।

इसलिए उसने अपनी पुत्री रजिया को अपना उत्तराधिकार घोषित किया।

परंतु कुछ विद्वानों के अनुसार उसने अपने दूसरे पुत्र फिरोज को अपना उत्तराधिकारी बनाया।

मूल्यांकन:-

इल्तुतमिश विद्वानों का आदर करता था ।मध्य एशिया से मंगोल आक्रमण के भय से भागकर भारत आए मुसलमान विद्वानों को उसने संरक्षण दिया।

इल्तुतमिश के दरबार में तबकात ए नासिरी का लेखक मिनहाज उस सिराज रहता था।इसके अलावा मलिक ताजुद्दीन,निजामुल मुल्क मुहम्मद जुनैदी जैसे व्यक्ति रहते थे।

मिनहाज ने उसे विद्वानों का संरक्षक और उदार शासक बताया है।

कुछ विद्वानों के अनुसार सूफी संत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के सम्मान में उसने कुतुबमीनार का नाम रखा।

इल्तुतमिश धार्मिक रूप से कट्टर था।जिन स्थानों पर अधिकार करने में वह सफल हो जाता था वहां के हिंदू मंदिरों को नष्ट कर देता था। उज्जैन के महाकाल और भिलसा के मंदिर इसका प्रमाण हैं।

इल्तुतमिश एक साहसी सैनिक और अनुभवी सेनापति था।मंगोल संकट के समय उसकी समझदारी का पता चलता है। उसने भारत में तुर्की राज्य को सुरक्षित रखा।

शाही सेना के संगठन का आरंभ मुसलमानों में उसी ने किया।
उसने शुद्ध अरबी सिक्के चलाए।चांदी का टंका और तांबे का जीतल उसी ने प्रारंभ किया।

इन्हें भी देखें:-

शमसुद्दीन इल्तुतमिश(विकिपीडिया)

मुहम्मद गोरी

कुतुबुद्दीन ऐबक

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