आर्यों की उत्पत्ति और विकास

आर्यों की उत्पत्ति का विषय उन गिने चुने विषयों व सिद्धांतों में से है जिसपर सम्पूर्ण संसार के इतिहास कारों द्वारा अपने विचार रखे जा चुके हैं ,परन्तु किसी निश्चित निष्कर्ष पर अभी तक नहीं पहुँचा जा सका है।
विद्वानों ने आर्यों के काल को वैदिक काल कहा क्योंकि इस समय वेदों की रचना हुई। आर्यों का काल दो भागों में बाटा गया ,पहला भाग ऋग्वैदिक काल -इस काल में विश्व के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद की रचना हुई इसमें 10 मंडल और 1028 सूक्त हैं । दूसरा उत्तर वैदिक काल -इसमें महाकाव्यों की रचना हुई।
आर्य शब्द का प्रयोग वैदिक व्यक्तियों द्वारा अपने पद नाम के लिए किया गया। आर्य शब्द का अर्थ होता है श्रेष्ठ ,उत्तम नस्ल वाला ,श्रेष्ठ गुणों वाला ,सद आचरण वाला।
आर्य शब्द के साथ-साथ दस्यु शब्द का भी प्रयोग किया गया जिसका अर्थ होता है लुटेरा ,निकृष्ट गुणों वाला ,दुराचारी आदि।
शारीरिक गठन :-
आर्य शारीरिक रूप से लम्बे,गोरे,लम्बी नाक वाले और चौड़े ललाट वाले थे। बाद में धीरे -धीरे मध्य प्रान्त में उनके साथ आपसी संपर्क से द्रविड़ रक्त का मिश्रण हो गया, पश्चिम में ईरानी और पूर्व में पीली जातियों का मिश्रण हुआ। परन्तु आर्य तत्व की प्रधानता रही और मूल रुप में आर्य तत्व ही विद्द्यमान है जो कि आधुनिक अनुसंधान में भी निकल कर आया है।
आर्यों की उत्पत्ति के विषय में विभिन्न विद्वानों द्वारा अनेक विचार व्यक्त किये गए हैं ,इनमे से कुछ इस प्रकार हैं –
आर्यों की उत्पत्ति का मध्य एशिया सिद्धांत :-
इस मत का प्रतिपादन जोर शोर से मैक्समूलर नामक विद्वान ने किया है। मैक्समूलर के अनुसार एशिया के दक्षिण पूर्व और यूरोप के उत्तर पश्चिम में दो अलग -अलग भाषा स्त्रोत प्रवाहित थे वे मध्य एशिया में आकर आपस में मिलते हैं। मध्य एशिया ही मानव सभ्यता के विकसित होने के लिए सबसे उपयुक्त स्थान है। यहीं से मानवों की दो शाखायें बनीं। एक शाखा भारत की ओर और दूसरी पश्चिम की ओर गई।
मैक्समूलर ने इसके सन्दर्भ में यह तर्क भी दिया है कि विभिन्न भाषाओँ का संस्कृत से साम्य है और वे इससे मिलती -जुलती हैं जैसे –
संस्कृत / फ़ारसी / लैटिन / अंग्रेजी / जर्मन
पितृ (पिता ) / पिदर / पेटर / फादर / फाटेर
मातृ (माता ) / मादर / मेटर / मदर / मुटर
परन्तु भाषा विज्ञान से किसी के मूल निवास का पता लगाना प्रामाणिक नहीं हो सकता क्योकि भाषा विज्ञान बहुत लचर है और भाषाएँ आपसी सम्बन्ध एवं व्यापारिक आदान -प्रदान से भी एक दूसरे को प्रभावित करती हैं।
आर्यों की मध्य एशिया की उत्पत्ति के लिए ईरानी ग्रन्थ जेंद अवेस्ता का भी सहारा लिया गया है इस ग्रन्थ में अनुश्रुति है कि मानव की सर्व प्रथम उत्पत्ति आर्याना बीजो में हुई वहीँ से ईरानी ईरान गए। आर्याना बीजो का अधिकांश भाग मध्य एशिया में है।
मध्य एशिया के बोगजकोई नामक स्थान पर 1500 ई.पू. के मिले लेख पट पर अंकित इन्द्र ,मित्र,वरुण आदि वैदिक देवताओं के नाम मिलने से भी अनुमान लगाया गया कि आर्य मूल रूप से मध्य एशिया के निवासी थे। परन्तु यह भी पूर्ण प्रमाणित नहीं कहा जा सकता क्योंकि आर्यों की संस्कृति का प्रसार भी वहाँ हो सकता है।
आर्यों की उत्पत्ति का यूरोप सिद्धांत :-
प्रारम्भ में यूरोपीय विद्वान इस बात से सहमत थे की आर्य लोग मध्य एशिया से आये ,परन्तु धीरे -धीरे बाद में इनके विचारों में परिवर्तन होने लगा इसका कारण है कि विभिन्न यूरोपियन भाषाओँ का संस्कृत के साथ साम्य। इन विचारकों में भाषा वैज्ञानिक ही अधिक हैं जैसे -जे. स्मिथ ,गीयगर कुनो आदि। कुछ के अनुसार जर्मनी ,कुछ के अनुसार लुथीआना और कुछ के अनुसार आस्ट्रिआ -हंगरी आर्यों का मूल निवास स्थान था।
नेहरिंग नामक विद्वान आर्यों का मूल निवास स्थान दक्षिणी रूस के घास के मैदान मानते हैं। नेहरिंग के अनुसार त्रिपोलजे संस्कृति ही मूल इंडो यूरोपियन संस्कृति थी।
डा. गाईल्ज के अनुसार आर्यों का निवास ऐसा प्रदेश रहा होगा जिसके पश्चिम में आस्ट्रियन एल्पस पर्वत ,पूर्व में कार्पेथियन पर्वत व दक्षिण में बाल्कन प्रदेश रहा होगा। उनके अनुसार यह स्थान आस्ट्रिया और हंगरी रहा होगा। पहले ये लोग एक साथ रहते थे तब इन्हे वायरस बोला जाता था। यही से ये लोग भारत,इंग्लैंड ,जर्मनी आदि जगहों पर गए।
आर्यों की उत्पत्ति का ध्रुव प्रदेश का सिद्धांत:-
बालगंगाधर के अनुसार आर्य प्रारम्भ में उत्तरी ध्रुव पर निवास करते थे वहाँ हिम प्रलय होने पर लगभग 8000ई.पू. में ये लोग नए निवास की तलाश में भ्रमण करते हुए उत्तरी यूरोप होते हुए एशिया फिर भारत आये। तिलक ने 1903 में प्रकाशित अपनी पुस्तक “The Arktik home in the Vedas” में इसका वर्णन किया है वेदों में वर्णित लम्बी रात व लम्बी उषा छः मास के दिन और रात का द्दोतक है।
ईरानी पुस्तकों से ज्ञात होता है कि आर्यों के मूल निवास स्थान में लम्बी शीत ऋतुएँ होती थीं।
आर्यों की उत्पत्ति का तिब्बत सिद्धांत :-
स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार आर्यों का मूल निवास स्थान तिब्बत है। इसका वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक “सत्यार्थ प्रकाश “और “प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक परम्परा” में किया है।
पार्टिजर नामक विद्वान के अनुसार भी आर्यों का मूल निवास स्थान तिब्बत है।
आर्यों की उत्पत्ति का सप्त सैन्धव सिद्धांत :-
डा. ए. सी. दास के अनुसार सप्त सैन्धव प्रदेश (सात नदियों का प्रदेश ) अर्थात पंजाब ही आर्यों का मूल निवास स्थान था क्योकि वेदों में इन नदियों का वर्णन बहुत मिलता है तथा सरस्वती नदी का वर्णन भी खूब मिलता है जो उस क्षेत्र से होकर बहती थी। उनके अनुसार आर्य इसी प्रदेश से पश्चिम की ओर बढ़े। यह विचार उन्होंने “ऋग्वैदिक भारत” नामक पुस्तक के माध्यम से वर्णित किया है।
आर्यों की उत्पत्ति का मध्य भारत सिद्धांत :-
कुछ विद्वानों ने आर्यों का मूल निवास स्थान मध्य देश को बताया है उनके अनुसार आधुनिक उत्तर प्रदेश और कुछ बिहार आर्यों का मूल निवास स्थान था। ग्रंथों मे वर्णित भारत के प्राचीन राजवंश यहीं स्थापित हुए। यथा अयोध्या का राजवंश ,प्रतिष्ठानपुर (प्रयाग )में ऐल पुरुरवा का राजवंश। मध्य देश से आर्य भारत के विभिन्न भागों में फैले।
विद्वानों का मत है कि धर्म शास्त्रों में कहीं पर भी एक भी वर्णन ऐसा नहीं है जिससे भूल कर भी यह पता चलता हो की आर्य बाहर से आये। यदि वे बाहर से आये होते तो कहीं पर कुछ तो अवश्य वर्णन करते या समाज में कोई अनुश्रुति अवश्य प्रचलित होती ,क्योंकि भारतीय समाज में अनेक विषयों पर विभिन्न अनुश्रुतियाँ प्रचलित हैं। वेदों में प्राचीन ऋषियों ने बहुत सी पुरानी अनुश्रुतियों को संकलित किया है जिन्हे स्मृतियाँ कहा गया। अगर बाहरी होने की बात होती तो उसका भी वर्णन किया जाता।
विद्वान इसके विषय में खोज करने में लगे हैं।
आर्यों का विस्तार व राज्य :-
आर्यों को देव पुत्र व ऋषि पुत्र और उनकी भूमि देव भूमि कही गई है। आर्य लोग ऋषि परम्परा के अनुयाई और वीर योद्धा थे।
उनके मुख्यतया दो शक्ति शाली राजवंश हुए –सूर्यवंश और चंद्रवंश इन्होंने पहले आर्यावर्त फिर धीरे -धीरे सम्पूर्ण भारत और उसके बाद चारों दिशाओं में अपने राज्य स्थापित किये। (प्राचीन समय में आर्यावर्त उत्तर भारत को कहा जाता था)
सूर्य वंश :-
भागवत महापुराण के अनुसार महर्षि कश्यप और उनकी पत्नी अदिति से विवस्वान की उत्पत्ति हुई। बाद में विवस्वान और उनकी पत्नी संज्ञा से मनु की जिससे मनु वैवस्वत मनु कहलाये। मनु का विवाह श्रद्धा से हुआ।
आर्यों के पहले राजा मनु हुए। मनु के पहले मानवों का न कोई राजा था न राज्य संस्था ना ही कोई नियम था। मनु ने सर्वप्रथम समाज के लिए नियम बनाये।
महाराज मनु के दस पुत्र हुए और एक इला नाम की पुत्री हुई। मनु के बड़े पुत्र इक्ष्वाकु सरयू नदी के किनारे अयोध्या के राजा बने।
मनु के अन्य पुत्र करूष के कई पुत्र हुए वे कारूष क्षत्रिय कहलाये। उनका राज्य उत्तर पश्चिम बिहार था।
उन्हीं के पुत्र दिष्ट के वंशज तृणबिन्दु के पुत्र विशाल ने वैशाली नगरी बसायी और उनके वंशज विशाल वंशी कहलाये।
मनु के पुत्र धिष्ट के पुत्र ध्राष्ट क्षत्रिय कहलाये और उन्होंने पंजाब में अपना राज्य स्थापित किया।
उन्हीं के पुत्र शर्याति के पुत्र रेवत ने समुद में कुशस्थली नामक नगर बसाया और वही से आनर्त आदि नगरों(उत्तरी गुजरात ) पर शासन करते थे।( सं. भागवत महापुराण )
महाराजा मनु पुत्र नरिष्यन्त से चित्रसेन और उनसे ऋक्ष फिर मीढ़वान हुए। नरिष्यन्त के कुछ वंशज पश्चिमोत्तर दर्रे से होकर मध्य एशिया गए और कुछ दक्षिण को चले गए।
मनु पुत्र इक्ष्वाकु के कई पुत्र हुए। उनके पुत्र विकुक्षि के वंश में सम्राट मान्धाता हुए उन्हें त्रय दस्यु (लुटेरों को मारने वाला) कहा गया। उनका राज्य समुद्र से लेकर पर्वत तक फैला था।
मान्धाता के पुत्र पुरुकुत्स की रानी नर्मदा थी जो नाग देश की कन्या थी सम्भवतादी उन्ही के नाम पर रीवा नदी का नाम नर्मदा पड़ा। पुरुकुत्स को उनके स्वसुर ने गंधर्वों से मुक्ति दिलाने के लिए आमंत्रित किया था और उन्होंने नागवंशियों को गंधर्वों से मुक्ति दिलाई थी।
राजा सगर:-
सूर्य वंश में बाहु के पुत्र सगर हुए। बाहु को तालजंघों ने परास्त कर दिया था। सगर ने तालजंघों को परास्त करके पुनः अपना राज्य पाया।सगर ने चारों दिशाओं में अपना राज्य स्थापित किया था। उन्होंने यवनों हैहयों आदि बर्बर जातिओं को दबाया था। सगर का राज्य समुद्र तक था इसीलिए उनके नाम पर समुद्र ,सागर कहलाया।
इन्हीं सगर के वंशज राजा दिलीप के पुत्र रघु के वंश में भगवान श्री राम आये और उन्होंने संसार को मर्यादा का पाठ सिखाया।
चन्द्रवंश :-
इस वंश का विस्तार सूर्य वंश से भी अधिक हुआ।
महाराज मनु की पुत्री इला का विवाह चंद्र के पुत्र बुध से हुआ था। चंद्र महर्षि अत्रि के पुत्र थे। बुध और इला से एक प्रतापी पुत्र का जन्म हुआ जो संसार में पुरुरवा के नाम से विख्यात हुआ। उन्हें ऐल पुरुरवा भी कहा जाता है। पुरुरवा ने प्रतिष्ठान पुर (प्रयाग के पास) में राज्य स्थापित किया।
पुरुरवा के छः पुत्र हुए। उनके पुत्र विजय के वंश में गाधि पुत्र विश्वरथ हुए जो बाद में महर्षि विश्वामित्र बने।
ययाति का वंश:-
पुरुरवा के वंश में नहुष हुए और उनके पुत्र हुए ययाति। ययाति ने एक बड़े साम्राज्य की स्थापना किया। ययाति के पुत्र यदु के वंश में वृष्णि हुए और उनके वंश में भगवान कृष्ण देवकी और वसुदेव के पुत्र रूप में अवतरित हुए।
ययाति के पांच पुत्र हुए जिनमे उनके पुत्र अनु के पुत्र सभानर के सातवें वंश में शिवि हुए और उनके पुत्रों सुवीर ,मद्र ,कैकय के नाम से सुवीर (पाकिस्तान में सिंधु नदी के किनारे नवाब शाह ,बेंद के आसपास ),मद्र (स्यालकोट के दक्षिण ),कैकय (पंजाब)राज्य स्थापित हुए।
पौरव वंश में दुष्यंत और शकुन्तला के पुत्र सम्राट भरत हुए जो दिग्विजयी राजा हुए। कहा जाता है उन्ही के नाम पर इस देश भारत का नाम पड़ा।
पुरुरवा के वंशज सभानर के छठे वंश में तितिक्षु और तितिक्षु के चौदहवें वंशज बालि हुए। बालि के छः पुत्र अंग ,बंग ,कलिंग ,सुह्य ,पुण्ड्र अन्ध्र हुए। इन्होंने अपने ही नाम पर ये राज्य स्थापित किये। जिनमे अंग (उत्तरी पूर्वी बिहार ),बंग (बंगाल ),कलिंग (उड़ीसा ),सुह्य (म्यांमार के पास ),पुण्ड्र (असम बंगाल ),अन्ध्र (आंध्र प्रदेश ) हैं।
इसप्रकार हम देखते हैं कि आर्यों ने अयोध्या और प्रतिष्ठान पुर (प्रयाग) से होकर अपने राज्य सुदूर पश्चिम ,पूर्व,उत्तर व दक्षिण में स्थापित किये।
इसे भी देखें:-
ऋग्वैदिक अथवा पूर्व वैदिक काल में आर्यों का जीवन संचरण